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________________ २२४ स्वरूप-दर्शन गले को डसा, किन्तु पुनः पुनः वही मिष्ट श्वेत रक्त देखकर वह दंग रह गया। वही था जगत् का प्रथम प्राणी, भाग्यवान् चंडकौशिक जिसने परमात्मा का खून देखा था। उसको भी अपनी आँखों पर भरोसा लाना पड़ा। आश्चर्य और ऊहापोह के साथ उसने इस महत्ता पर सोचना शुरू किया और उसकी दृष्टि का सारा विष घुल गया। उसके रोम-रोम में शांति और सुधा व्याप्त हो गई। उसने अपनी आँखें ऊपर ऊठाई और परमात्मा की झुकी हुई पलकों में एकाग्र उन नयनों के दर्शन किये। इन नजरों में उसने वात्सल्य का कोश पढ़ा। मैत्री की अखंडता के अद्भुत दर्शन कर वह आश्चर्यान्वित हो गया। दर्शन कर श्रवण की इच्छा से वह नजदीक आया। कुछ समय बाद उसे प्रभु की परावाणी सुनाई दी। आश्चर्य बढ़ा। मन्द मुस्कराहट वाले ओठ तो बन्द हैं फिर भी मैं कैसे कुछ सुन रहा हूँ। नहीं पहचान पाया वह उस परावाणी को। जो प्रभु की अंतःस्रावी ग्रंथि के रस से प्लावित थी। वत्स ! प्रतिक्रमण करो, अपने घर लौट आओ.......| आज उसने यह पहली बार सुना। सोचने लगा, कहां लौटू ? यही तो मेरा घर है। आप मेरे घर आये हो। मैं तो अपने ही घर में, दर में या सीमा में हूं........ वह कुछ सोचे इतने में पुनः दुहराई वह वाणी। उसने गहराई से सुनी, धीरे-धीरे वह पराश्रवण तक पहुँचा। उसे लगा. मैं निज आत्मस्वरूप से बहुत दूर निकल गया हूँ। 'वत्स' का सम्बोधन कर यह जगत् जननी मुझे जगाने आयी। वह झुक गया विश्वमाता के चरणों में। दर्शन, स्पर्शन और श्रवण द्वारा उसने वात्सल्य का पान किया। उस ममतामयी दूध का पान उसके निज भान का, भेदविज्ञान का कारण बन गया और उसके रोम-रोम से स्पंदन के साथ निकला “नमो अरिहंताणं"। आज का विज्ञान भी इतना तो मानता है कि परा वाणी से मानव की पिच्यूटरी ग्रंथि से विशेष रस नावित हो सकते हैं। जिससे उसका प्रभाव बढ़ता है। उस व्यक्ति के अल्फा कण बढ़ते हैं, फैलते हैं। संपर्क में आने वाले व्यक्ति में वह संप्रेषित भी होते हैं। परिणामतः वह व्यक्ति उस महापुरुष की ऊर्जा से प्रसन्न हो उठता है। उसकी उदासीनता वाले बेटा, डेटा आदि कषाय अल्फा कणों के रूप में बदल जाते हैं। प्रभु तो. परा वाणी के अखंड स्रोत थे। अतः आनन्द एवं प्रसन्नता का प्रवाह उनमें निरंतर नावित होता था। यही कारण होता है कि उनका रक्त श्वेत वर्ण का होता है। इसे सिद्ध करने के लिए किसी प्रयोगशाला की आवश्यकता नहीं है। वैर-शमन पूर्व जन्म में तथा जन्मान्तर में बंधे हुए अथवा निकाचित किये हुए, वैर के कारण अथवा जन्मजात वैर वाले प्राणी भी भगवन्त की पर्षदा में रहते हैं तथा वे भी प्रशांत मन वाले होकर धर्मश्रवण करते हैं। परस्पर अति तीव्र वैर वाले वैमानिक देव, असुर,
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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