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केवलज्ञान-कल्याणक २२५ नाग नामक भवनपति देव, सुन्दर वर्ण वाले ज्योतिष्क देव, यक्ष, राक्षस, किंनर, किंपुरुष, गरुड़ लांछन वाले सुपर्णकुमार नाम के भवनपति देव, गंधर्व एवं महोरग नामक व्यंतरदेव भी अत्यंत प्रशान्त मन वाले होकर अत्यंत ध्यानपूर्वक धर्म देशना श्रवण करते हैं।
वीतरागस्तव की अवचूर्णि में इसका वर्णन करते हुए कहा है कि हे देवाधिदेव ! आपकी निष्कारण करुणा से, अन्य किसी भी साधन से न टूट सके ऐसे अनेक भवों तक प्रज्ज्वलित रहने वाले दुर्धर वैरानुबन्ध भी तत्काल प्रशांत हो जाते हैं। वे वैरानुबन्ध चाहे स्त्री सम्बन्धी हों, भूमि सम्बन्धी हों, ग्रामनगरादि मालिकी आदि के हों, पारिवारिक हों या राजकीय-किसी भी प्रकार के हेतुओं से युक्त हों उनका उपशमन हो जाता है। समवसरण को देखते ही वैर वाले तिर्यंचों के वैर का विस्मरण हो जाता है।
परमात्मा की ऐसी अद्भुत प्रभाव शक्ति में नियोजित योग महिमा कितनी उत्तम है। सर्व जीवों के प्रति रही अपार महिमा का यह परम परिणाम स्वरूप अचिन्त्य पौद्गलिक शक्ति कितनी मंगलमय है। कितने पवित्र एवं प्रेम से परिपूर्ण हैं परमात्मा के परमाणु। ज्ञानार्णव में लिखा है-"क्षीण हो गया है मोह जिसका और शान्त हो गया है कलुष कषाय रूप मैल जिसका ऐसे समभावों में आरूढ़ हुए योगीश्वर को आश्रय करके हरिणी सिंह के बालक को अपने पुत्र की बुद्धि से स्पर्श करती है........ इसी प्रकार अन्य प्राणी भी जन्म के. वैर को मदरहित होकर छोड़ देते हैं। यह सब प्रभु के साम्यभाव का ही प्रभाव है। समवसरण में स्थित सिंह और खरगोश भी उन समतामूर्ति के प्रभाव से परस्पर के जन्मजात के वैर का भी विस्मरण कर वीतरागवाणी का पान करते हैं। वचनातिशय . महान आत्मा की शारीरिक सम्पत्ति भी अलौकिक होती है और वाणी-व्यवहार भी अपूर्व होता है। जिस प्रकार उनकी आत्मा महान् होती है, उसी प्रकार शरीर सम्पत्ति .भी महान होती है और वाणी भी प्रभावयुक्त, निम्न ३५ अतिशयों से सम्पन्न होती है।
(१) संस्कारित वचन-भाषा और व्याकरण की दृष्टि से निर्दोष वचन। (२) उदात्त स्वर-उच्च प्रकार की आवाज, जो एक योजन तक पहुँच सके। (३) उपचारोपपेत-उत्तम प्रकार के विशेषण से युक्त। (४) गंभीरता-मेघगर्जन के समान प्रभावोत्पादक एवं अर्थगांभीर्य युक्त। (५) अनुनादित-प्रतिध्वनि युक्त। (६) दक्षिणत्व-सरलता।
(७) उपनीतरागत्व-मालवकोशिकादि रागयुक्त, श्रोताओं को तल्लीन कर देने वाला स्वर। .