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२१८ स्वरूप-दर्शन
१०-हजार पताका वाले इन्द्रध्वज का आकाश में आगे चलना।
११-अर्हन्त भगवान् जहाँ जहाँ ठहरें, वहाँ-वहाँ तत्काल फल-फूल युक्त अशोकवृक्ष का होना।
१२-भगवान् के पीछे की ओर मकुट के स्थान पर तेजोमण्डल होना जो चारों दिशाओं को प्रकाशित कर सके।
१३-भूमिभाग का रमणीक होना। १४-कांटों का अधोमुख होना। १५-ऋतुओं का सब प्रकार से सुखदायी होना। १६-शीतल-सुखद-मंद वायु से चारों ओर चार-चार कोस तक स्वच्छता होना। १७-जल-बिन्दुओं से भूमि की धूलि का शमन होना। १८-पाँच प्रकार के अचित्त फूलों का जानु प्रमाण ढेर लगना। १९-अशुभ शब्द, रूप, गन्धं, रस और स्पर्श का अपकर्ष होना। २०-शुभ वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श आदि का प्रकट होना। : २१-बोलते समय भगवान् के गंभीर स्वर का एक योजन तक पहुँचना। २२-अर्द्धमागधी भाषा में भगवान् का धर्म प्रवचन फरमाना।
२३-अर्धमागधी भाषा का आर्य, अनार्य, मनुष्य और पशुओं की अपनी-अपनी भाषाओं में परिणत होना।
२४-भगवान् के चरणों में पूर्व के वैरी देव, असुर आदि का वैर भूल कर प्रसन्न मन से धर्म श्रवण करना।
२५-अन्य तीर्थ के वादियों का भी भगवान् के चरणों में आकर वन्दन करना। २६-वाद के लिए आये हुए प्रतिवादी का निरुत्तर हो जाना।
२७-जहाँ-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ-वहाँ से २५ (पच्चीस) योजन तक इति नहीं होती।
२८-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ (२५ योजन तक) मारी नहीं होती। २९-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ स्वचक्र का भय नहीं होता। ३०-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ परचक्र का भय नहीं होता। ३१-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ अतिवृष्टि नहीं होती। ३२-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ अनावृष्टि नहीं होती। ३३-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ दुर्भिक्ष नहीं होता। ३४-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ पूर्व उत्पन्न उत्पात भी शीघ्र शान्त हो जाते
हैं।