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________________ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ११८ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम ३. अवधिज्ञान अवधि का अर्थ है-सीमा। अतः इन्द्रियादि की सहायता के बिना कुछ सीमा को लिए जो रूपी-पदार्थ के विषय में अन्तःसाक्ष्यरूप ज्ञान होता है वह “अवधिज्ञान" कहलाता है। इस ज्ञान में अरूपी द्रव्यों का साक्षात्कार नहीं होता है। यह दिव्य ज्ञान की प्रथम अवस्था है। संक्षेप में इच्छित रूप से अवलोकन करने वाले आत्मा का बिना इन्द्रिय के अवलंबन के अमुक सीमा तक देखना अवधिज्ञान है। ४. मनः पर्यायज्ञान दूसरों के मनोगत विचारों को जानने की शक्ति के कारण इसे “मनः पर्यायज्ञान" कहा जाता है। यह दिव्यज्ञान की दूसरी अवस्था है और अवधिज्ञान से श्रेष्ठ है। इस ज्ञान की उत्पत्ति भावों की विशेष निर्मलता और तपस्या आदि के प्रभाव से होती है। सरल और जटिल इन दो प्रकार के विचारों को जानने के कारण तत्वार्थसूत्र में इस ज्ञान के दो भेद किये गए हैं। इतना विशेष है कि इस ज्ञान के द्वारा दूसरे के मन में चिन्तनीय रूपी द्रव्यों का ही बोध होता है, अरूपी का नहीं। इस प्रकार अनिच्छित फिर भी मानसिक विशुद्धि के बल से जानना मनःपर्यवज्ञान है। • केवलज्ञान चैतन्यदृष्टि में परिनिष्ठित पूर्ण शुद्ध ज्ञान केवलज्ञान है। त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों का एक साथ ज्ञान होना, यह दिव्यज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है। इस ज्ञान के उत्पन्न होने पर त्रिकालवर्ती ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं बचता है जो इस ज्ञान का विषय न होता हो। यह पूर्ण एवं असीम ज्ञान है। इससे श्रेष्ठ कोई अन्य ज्ञान न होने के कारण इसे अनुत्तर, अनन्त, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, आवरणरहित, अन्धकार रहित, विशुद्ध तथा लोकालोक-प्रकाशक बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त इस ज्ञान के धारण करने वाले को केवली, केवलज्ञानी तथा सर्वज्ञ कहा गया है। इन पांच प्रकार के ज्ञानों में प्रथम दो ज्ञान इन्द्रियादि की सहायता से उत्पन्न होते हैं और ये किसी न किसी रूप में प्रायः सभी जीवों में पाए जाते हैं। यदि ऐसा न माना जाएगा तो जीव में जीवत्व ही न रहेगा क्योंकि चेतना को जीव का लक्षण स्वीकार किया गया है और चेतना दर्शन व ज्ञानरूप स्वीकार की गई है। एकांत निश्चय. नय से मति आदि चारों ज्ञान संपूर्ण शुद्ध ज्ञान की अपेक्षा से विकल्पज्ञान कहे जाते हैं। परन्तु संपूर्ण शुद्ध ज्ञान अर्थात् संपूर्ण निर्विकल्प ज्ञान की प्राप्ति में ये चार ज्ञान अवलंबनरूप हैं। इन चार में भी श्रुतज्ञान मुख्य है, केवलज्ञान की प्राप्ति में अन्त तक अवलंबन रूप रहता है। केवलज्ञान प्राप्ति के पूर्व ही यदि कोई उसका त्याग कर दें तो केवलज्ञान मिल नहीं सकता। केवलज्ञान की दशा प्राप्त करने का हेतु श्रुतज्ञान ही है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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