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________________ आराधक से आराध्य ११९ ___ मति और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति-ग्राह्यता सर्व-पर्याय रहित अर्थात् परिमित पर्यायों से युक्त सब द्रव्यों में होती है। अवधिज्ञान की प्रवृत्तिं सर्व पर्याय रहित सिर्फ रूपी-मूर्त द्रव्यों में होती है। मनःपर्यायज्ञान की प्रवृत्ति उस रूपी द्रव्य के सर्व पर्याय रहित अनन्तवें भाग में होती है। केवलज्ञान की प्रवृत्ति सभी द्रव्यों में और सभी पर्यायों में होती है। मति और श्रुतज्ञान के द्वारा रूपी, अरूपी सभी द्रव्य जाने जा सकते हैं पर पर्याय उनके कुछ ही जाने जा सकते हैं, सब नहीं। यहाँ पर द्रव्यरूप ग्राह्य की अपेक्षा से तो दोनों के विषयों में न्यूनाधिकता नहीं है; परंतु पर्याय रूप ग्राह्य की अपेक्षा से दोनों के विषयों में न्यूनाधिकता अवश्य है। ग्राह्य पर्यायों की कमी-वेशी होने पर भी समानता सिर्फ इतनी है कि वे दोनों ज्ञान द्रव्यों के परिमित पर्यायों को ही जान सकते हैं, संपूर्ण पर्यायों को नहीं। मतिज्ञान वर्तमानग्राही होने से इन्द्रियों की शक्ति और आत्मा की योग्यता के अनुसार द्रव्यों के कुछ-कुछ वर्तमान पर्यायों को ही ग्रहण कर सकता है, पर श्रुतज्ञान त्रिकालग्राही होने से तीनों काल के पर्यायों को थोड़े-बहुत प्रमाण में ग्रहण कर सकता है। __ मतिज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियों से पैदा होता है और वे इन्द्रियाँ सिर्फ मूर्त द्रव्य को ही ग्रहण करने का सामर्थ्य रखती हैं। फिर मतिज्ञान के ग्राह्य सब द्रव्य कैसे माने गए? इस प्रश्न के उत्तर में कहा है-मतिज्ञान इन्द्रियों की तरह मन से भी होता है, और मन स्वानुभूत या शास्त्रश्रुत सभी मूर्त, अमूर्त द्रव्यों का चिन्तन करता है। इसलिए मनोजन्य मतिज्ञान की अपेक्षा से मतिज्ञान के ग्राह्य सब द्रव्य मानने में कोई विरोध नहीं है। • स्वानुभूत या शास्त्रश्रुत विषयों में मन के द्वारा मतिज्ञान भी होगा और श्रुतज्ञान भी। उसमें अन्तर केवल इतना ही है कि जब मानसिक चिन्तन, शब्दोल्लेख सहित हो तब श्रुतज्ञान और जब उससे रहित हो तब मतिज्ञान। परम प्रकर्ष प्राप्त परमावधिज्ञान जो अलोक में भी लोकप्रमाण असंख्यात खण्डों को देखने का सामर्थ्य रखता है वह भी सिर्फ मूर्त द्रव्यों का साक्षात्कार कर सकता है, अमूर्तों का नहीं। इसी तरह वह द्रव्यों के भी समग्र पर्यायों को नहीं जान सकता। मनः पर्याय-ज्ञान भी द्रव्यों को ही साक्षात्कार करता है पर अवधिज्ञान जितना नहीं। क्योंकि अवधिज्ञान के द्वारा सब प्रकार के पुद्गल द्रव्य ग्रहण किये जा सकते हैं पर मनः पर्याय ज्ञान के द्वारा तो सिर्फ मनरूप बने हुए पुद्गल और वे भी मानुषोत्तर क्षेत्र के अन्तर्गत ही ग्रहण किये जा सकते हैं। इसी से मनःपर्यायज्ञान का विषय अवधिज्ञान के विषय का अनन्तवां भाग कहा गया है। मनःपर्याय-ज्ञान भी कितना ही विशुद्ध क्यों न हो, पर अपने ग्राह्य द्रव्यों के संपूर्ण पर्यायों को नहीं जान सकता। यद्यपि मनःपर्याय ज्ञान के द्वारा साक्षात्कार तो सिर्फ चिन्तनशील मूर्त मन का ही होता है, पर पीछे होने
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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