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________________ १२० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम वाले अनुमान से तो उस मन के द्वारा चिन्तन किये गये मूर्त, अमूर्त सभी द्रव्य जाने जा सकते हैं। ___ मति आदि चारों ज्ञान कितने ही शुद्ध क्यों न हों, पर वे चेतना शक्ति के अपूर्ण विकास रूप होने से एक भी वस्तु के समग्र भावों को जानने में असमर्थ हैं। यह नियम है कि जो ज्ञान किसी एक वस्तु के संपूर्ण भावों को जान सके वह सब वस्तुओं के संपूर्ण भावों को भी ग्रहण कर सकता है, वही ज्ञान पूर्ण ज्ञान कहलाता है, इसी को केवलज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान चेतनाशक्ति के संपूर्ण विकास के समय प्रकट होता है। इसलिए इसके अपूर्णताजन्य भेद-प्रभेद नहीं हैं। कोई भी ऐसी वस्तु या ऐसा भाव नहीं .. है जो इसके द्वारा प्रत्यक्ष न जाना जा सके। इसी के कारण केवलज्ञान की प्रवृत्ति सब द्रव्य और सब पर्यायों में मानी गई है। ___एक आत्मा में एक साथ एक से लेकर चार ज्ञान तक अनियत रूप से होते हैं। . अर्थात् किसी आत्मा में एक, किसी में दो, किसी में तीन और किसी में चार ज्ञानं तक : होना संभव है, पर पाँचों ज्ञान एक साथ किसी में नहीं होते। जब एक होता है तब केवलज्ञान समझना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान परिपूर्ण होने से उस समय अन्य अपूर्ण किसी ज्ञान का होना संभव ही नहीं। जब दो होते हैं तब मति और. श्रुत, क्योंकि पाँच ज्ञान में से नियत सहचारी दो ज्ञान ये ही हैं। शेष तीनों एक दूसरे को छोड़कर भी रह सकते हैं। जब तीन ज्ञान होते हैं तब मति, श्रुत और अवधिज्ञान या मति, श्रुत और मनः पर्यायज्ञान क्योंकि तीन ज्ञान अपूर्ण अवस्था में ही संभव होते हैं और उस समय चाहे अवधिज्ञान हो या मनःपर्यायज्ञान पर मति, श्रुत-दोनों अवश्य होते हैं। जब चार ज्ञान होते हैं तब मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय, क्योंकि ये ही चारों ज्ञान अपूर्ण अवस्थाभावी होने से एक साथ हो सकते हैं। केवलज्ञान का अन्य किसी ज्ञान के साथ साहचर्य इसलिए नहीं है कि वह पूर्ण अवस्थाभावी है और शेष सभी अपूर्ण अवस्थाभावी। पूर्णता तथा अपूर्णता का आपस में विरोध होने से दो अवस्थाएँ एक साथ आत्मा में नहीं होती। दो, तीन या चार ज्ञानों का जो एक साथ कथन किया गया है वह शक्ति की अपेक्षा से, प्रवृत्ति की अपेक्षा से नहीं। मति, श्रुत दो ज्ञान वाला या अवधि सहित तीन ज्ञान वाला कोई आत्मा जिस समय मतिज्ञान के द्वारा किसी विषय को जानने में प्रवृत्त हो उस समय वह अपने में श्रुत की शक्ति या अवधि की शक्ति होने पर भी उसका उपयोग करके तद् द्वारा उसके विषयों को जान नहीं सकता है। इसी तरह वह श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति के समय मति या अवधि शक्ति को भी काम में नहीं ला सकता है। यही बात मनःपर्याय की शक्ति के विषय में भी समझनी चाहिए। सारांश यह है कि एक आत्मा में एक साथ अधिक से अधिक चार ज्ञान शक्तियाँ हों तब भी एक समय में कोई एक ही शक्ति जानने का काम करती है। अन्य शक्तियाँ उस समय निष्क्रिय रहती हैं।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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