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आराधक से आराध्य १२१
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श्रुतभक्ति
सतत् ज्ञान प्राप्ति का प्रयत्न करने के अतिरिक्त श्रुत-भक्ति भी एक उपाय है। ज्ञान प्राप्ति का प्रयत्न श्रद्धायुक्त हो और साथ ही भक्ति पूर्वक हो, तो विशेष फल देता है। भक्ति रहित-उपेक्षापूर्वक मात्र विषय को समझने-समझाने के लिए ही हो, तो वह भौतिक फल देकर रह जाता है।
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान- ज्ञान के इन पाँच प्रकारों में एक .श्रुतज्ञान ही ऐसा है, जो दूसरों से लिया या दिया जा सकता है और पढ़ या सुनकर प्राप्त किया जाता है। अक्षर-अनक्षर आदि का भेद श्रुतज्ञान में ही है। लिपि का व्यवहार भी श्रुत में ही होता है। यों तो केवलज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम है। ज्ञान की पूर्णता और पराकाष्ठा केवलज्ञान में ही है, किन्तु वह जिन भव्यात्माओं को प्राप्त होता है, वह उन्हीं के लिए उपकारक है। क्योंकि केवलज्ञान न तो किसी को दिया जाता है और न किसी से लिया जाता है। केवल ज्ञानी सर्वज्ञ भगवान् अपने केवलज्ञान से जानकर जो भाव फरमाते हैं, वही भाव श्रोता के लिए श्रुतज्ञान हो जाता है। तात्पर्य यह कि अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान से जानकर जो कुछ कहा जाता है, वह "वचन-योगश्रुत" होता है-द्रव्य-श्रुत है और श्रोता के लिए वही भाव श्रुतश्रुतज्ञान हो जाता है। ___ गुरु के समीप रहकर सुनकर ही ज्ञान-ग्रहण की परम्परा थी इसलिये इसका नाम श्रुत माना जाता है। आचारांगादि का प्रारम्भ इस बात की पुष्टि करता है। इसमें प्रारम्भ में “सुयं मे" शब्द का प्रयोग श्रुत की इस वास्तविकता का परिचय है।
: श्रुत का भक्तिपूर्वक पठन-मनन हो, स्वाध्याय हो, दूसरे भव्य जीवों को श्रुत-भक्ति में जोड़ने की प्रवृत्ति, श्रुतभक्ति है। इसकी उत्कृष्ट आराधना से अरिहंत पद प्राप्ति का सामर्थ्य प्रकट होता है। प्रवचन-प्रभावना - प्रवचन-प्रभावना, यह तीर्थंकर पद प्राप्ति का अन्तिम उपाय है। आगमों में इस पद का प्रवचन प्रभावना यह एक ही नाम उपलब्ध होता है, परन्तु अन्य साहित्य में शासन प्रभावना तथा तीर्थ प्रभावना ऐसे दो नाम प्राप्त होते हैं। प्रवचन, शासन तथा तीर्थचाहे किसी भी शब्द का प्रयोग किया जाय, अभिप्राय एक ही है। शासन और तीर्थ दोनों का अर्थ तो एक ही है। इतना ही नहीं परन्तु इनके अतिरिक्त श्रुतधर्म, मार्ग तथा प्रवचन ऐसे अन्य नाम भी हैं। प्रयक्त नाम विधान में "मार्ग" शब्द भी 'प्रवचन का एकार्थवाची है। तत्वार्थ सूत्र में तीर्थंकर-नामकर्म हेतु सोलह कारणों के निर्देशन में प्रवचन-प्रभावना शब्द न होकर मार्ग प्रभावना नामक पन्द्रहवां कारण स्पष्टतः इससे अभिन्न है।