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________________ आराधक-से आराध्य ११७ ....................................................... आत्मा के ज्ञानाभ्यास में लगे रहने से उसकी आत्म परिणति भी शुभ होती है। वह शुभ से शुभतर और शुभतम होती जाती है। किसी भी विषय पर अनुप्रेक्षा करते हुए, चिन्तन-मनन करते हुए आत्मा, विषय-कषाय की अशुभ परिणति से हट कर, आत्मशुद्धि की ओर अग्रसर होता है। यदि सतत अभ्यास होता रहे और एकाग्रता बढ़ती रहे, तो अशुभ की निर्जरा और परम उत्कृष्ट तीर्थंकर नाम-कर्म की पुण्य-प्रकृति का बन्ध भी हो सकता है। स्वरूप दृष्टि से समझने के लिए ज्ञान के दो स्वरूप बताये गये हैं-१. बीजभूत ज्ञान और २. वृक्षभूत ज्ञान। प्रतीति में दोनों समान होने पर भी परिणाम से दोनों भिन्न हैं। वृक्षभूत ज्ञान से आत्मा के निरावरण होने पर उसी भव से मोक्ष प्राप्त हो जाता है और बीजभूत ज्ञान से कम से कम १५वें भव में अवश्य मुक्ति हो जाती है। - ज्ञान की प्राप्ति के लिये आत्मा को विभाव परिणति त्यागकर स्वभाव में रमण करना चाहिए और ज्ञान की आराधना करनी चाहिए। एक कोड वर्ष में अज्ञानी जितने कर्मों का क्षय कर सकता है ज्ञानी उतने कर्मों का श्वासोश्वास जितने काल में क्षय कर सकता है। सात गुणस्थान तक अनेकविध क्रिया कर्म द्वारा आत्मा की ज्ञान ज्योति अभिवर्धित होती है और आठवें गुणस्थान में क्षपक श्रेणी के प्रारंभ काल में ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकाग्रता से पूर्वकृत कर्मों का प्रचंड विध्वंस शुरू होता है, और जीव अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान को प्राप्त कर सकता है। . जिसके द्वारा स्व-पर को, जड़-चैतन्य को, गुण-दोष को, हिताहित को, भक्ष्याभक्ष्य को, कर्तव्याकर्तव्य को पहचाना जाता है और जिसके द्वारा अनादि अज्ञान-अविद्याजड़ता का नाश होता है, ऐसा सम्यज्ञान अत्यंत उपकारक होने से सर्वथा ग्राह्य होता है। अप्रतिपाति अविनश्वर ऐसा ज्ञान तो सूक्ष्म निगोदावस्था में भी कायम रहता है। ऐसे ज्ञान के प्रमुख पांच और अवान्तर ५१ प्रकार हैं। ज्ञान के प्रमुख पांच प्रकार इस प्रकार हैं१: मतिज्ञान या आभिनिबोधिकज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियाँ और मन की सहायता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान "आभिनिबोधिक" कहलाता है। जैन दर्शन में इसका प्रचलित नाम “मतिज्ञान' है। यह इन्द्रियादि की सहायता से होता है। २. श्रुतज्ञान इसका सामान्य अर्थ है-शब्दजन्य शास्त्रज्ञान। श्रुतज्ञान वंही है जो प्रामाणिक शास्त्रों से होता हो। श्रुतज्ञान दो प्रकार का माना गया है-अङ्ग विषयक श्रुतज्ञान और अङ्गबाह्य श्रुतज्ञान।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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