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________________ ... ११६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम पुण्य प्रकृतियों का बन्ध होता है, किन्तु आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित, साधर्मी, कुल, गण और संघ की भावपूर्वक भक्ति और सेवा सकाम-निर्जरा का कारण है। . इस प्रकार यथोचित वैयावृत्य करने से और भावों की उत्कृष्टता से अरिहंत-पद के योग्य उत्कृष्ट शुभ कर्म का बन्ध हो सकता है। समाधि-भाव समाधि-भाव आकुलता से रहित, मन की एकाग्रता से अध्यवसायों की पवित्रता से प्राप्त होता है। मन को पौद्गलिक अथवा पर के निमित्त से हटाकर धर्म चिन्तन में लगाने से समाधि-भाव (शान्ति) प्राप्त होता है। समाधिभाव का अभ्यास बढ़ने से आत्मा की स्थिरता भी बढ़ती है। यह स्थिरता धर्मध्यान के अवलम्बन से आत्मा को इतनी बलवान बना देती है कि जिससे कई चरम शरीरी जीव, निर्जरा के अति प्रबल वेग के - चलते क्षपक-श्रेणी का आरोहण करते हुए शुक्ल-ध्यानी बनकर अरिहंत दशा प्राप्त कर . लेते हैं! समाधि दो प्रकार की होती है-सविकल्प और निर्विकल्प। सविकल्प समाधि में साधक मन को विशिष्ट ध्येय एवं मंत्र पर स्थिर करता है। शुद्ध संविकल्प समाधि में ज्ञानीजन यह भावना-भाते हैं___ “जाने अनजाने भी मैं अन्य की असमाधि का निमित्त रूप न बनूं। यथासंभव अन्यों की समाधि के प्रयत्न करता रहूं। इस भावना को सफल करने में मुझे चाहे कितने ही कष्ट सहने पड़ें, सह लूंगा। बिना अपराध के भी अन्यों के उपालंभ को समाधि में रहकर सह लूंगा परंतु उनकी समाधि नहीं टूटने दूंगा। मेरे समस्त पुण्य एवं शक्ति को लगाकर भी अन्य की समाधि की सुरक्षा करूंगा।" ऐसे महान समाधिभाव वाले पुण्यात्मा इसी से तीर्थंकर पद के स्वामी बन सकते हैं। वीतराग भाव से युक्त निर्विकल्प समाधि केवल्यज्ञान की बीज है। इसे परम समाधि या सहज समाधि भी कहते हैं। अपूर्व ज्ञानग्रहण तीर्थंकर-पद प्राप्ति का अठारहवां उपाय-अप्राप्त ज्ञान को प्राप्त करने में निरन्तर प्रयत्नशील रहना है। ज्ञान ऐसा सबल अवलम्बन है कि जिसके आश्रय से भव्यात्मा, ज्ञान के आवरण को नष्ट करता हुआ विशेष-विशेष ज्ञानी बनता जाता है। वह प्रारंभ में श्रुतकेवली और अन्त में केवल-ज्ञानी सर्वज्ञ बन जाता है। वैसे तो ज्ञान का स्वरूप आठवें पद अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में भी है। यहां नवीन जिज्ञासा रूप ज्ञान की पुष्टि को महत्व दिया गया है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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