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________________ आराधक से आराध्य इसके अतिरिक्त भी तप की परिभाषा, रूप, प्रकार इस प्रकार बताये हैंसराग -तप- किसी भौतिक आकांक्षा या प्रतिष्ठा, कीर्ति, लब्धि तथा स्वर्ग आदि की भावना से तप करना सराग तप है। ११५ .... वीतराग -तप- आत्मा को कर्म बन्धनों से मुक्त करने के लिए कषाय रहित दृष्टि से जो तप किया जाता है वह वीतराग तप है। सराग तप निम्न कोटि का है, अल्पफलदायी है, वीतराग तप उत्कृष्ट कोटि का उत्तम फल देने वाला है। त्याग अरिहन्त पद प्राप्ति के बीस उपायों में १४वाँ उपाय "त्याग" है। आत्मा के अतिरिक्त अन्य पदार्थ के अध्यास का आत्म-परिणाम से निवर्तना त्याग है। जहाँ अनंत ज्ञान होता है वहीं अत्यंत त्याग सम्भव है । अत्यन्त ज्ञान का परिणाम ही अनन्त त्याग है। स्वरूप के विषय में स्थितप्रज्ञ रहकर पर-द्रव्यों पर से ममत्व हटा लेना, आसक्ति घटा देना परमार्थ त्याग है। जिन पर से ममत्य तो नहीं हटा फिर भी पदार्थ का छोड़ देना त्याग नहीं हो सकता क्योंकि आत्म द्रव्य स्वयं कभी भी परद्रव्य का ग्रहण नहीं करता है। जिसका ग्रहण ही नहीं होता उसका छोड़ना भी कैसे हो सकता है ? पर-द्रव्य तो सदा पृथक् ही है। अतः परद्रव्य के प्रति होने वाले राग-द्वेष का ही त्याग करना होता है। पर को पर जानकर उससे ममत्वभाव तोड़ना ही त्याग है। पौद्गलिक रचनाओं में आत्मा को स्तभित कर बाहर से किया जाने वाला त्याग वास्तविक नहीं होता। अतः तीर्थंकर परमात्मा सर्वथा ममता रहित भावों में रमते हुए ही त्याग भाव में कदम रखते हैं। सचेतन या अचेतन परिग्रह दोनों की निवृत्ति रूप त्याग होता है। आभ्यन्तर तप उत्सर्ग करते समय नियत समय के लिए सर्वोत्सर्ग किया जाता है, पर त्याग धर्म में यथाशक्ति और अनियतकालिक त्याग होता है, अतः दोनों पृथक्-पृथक् हैं। इसी तरह शौचधर्म में परिग्रह के न रहने पर भी कर्मोदय से होने वाली तृष्णा की निवृत्ति की जाती है, पर त्याग में विद्यमान परिग्रह छोड़ा जाता है। त्याग का अर्थ है स्वयोग्य दान देना । वैयावृत्य अपनी स्वार्थवृत्ति का विलोपन और अन्य की परार्थवृत्ति का प्रगटीकरण, यह वैयावच्च है। सहिष्णुता, उदारता और समर्पणभाव - ये वैयावच्च के गुण हैं। गुणाधिक संयमी, समान गुण वाले और साधर्मिक की विशुद्ध भाव से उल्लासपूर्वक वैयावृत्य करने से आत्मा के अशुभ पाप कर्मों की निर्जरा होती है और महान् शुभ कर्मों का बन्ध होता है। सेवा किसी की भी की जाय, दुःखी दर्दी और अभावग्रस्त जीवों के जीवन तथा शान्ति के लिए, आवश्यक निर्दोष साधनों से सेवा करना भी लाभ का कारण है। इससे
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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