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________________ ........................................................ केवलज्ञान-कल्याणक २३३ प्रवृत्तिमुक्त योगीश्वर के सतत वैराग्य वेग से प्रसृत महातत्वज्ञानरूप प्रसादीभूत वचनों का भावन करने पर मन यह निर्विवाद मान लेता है कि जिनदेशनामय दर्शन के अतिरिक्त पूर्ण और परम पवित्र अन्य कोई दर्शन नहीं है। वीतराग परमात्मा से बढ़कर कोई बक्ता नहीं है। अतः इसके अभाव से उपलब्ध आत्मा की अनादि गतिमयता को टालने के लिए अरिहंत देशना रूप प्रशस्त भाव में सदा अन्तर्लीन होना चाहिए, क्योंकि सर्वोच्च एवं सम्पूर्ण अनूभूतिमय अभिव्यक्ति अद्वितीय, अपूर्व और आनंदमय कल्याण केन्द्र अरिहंत देशना है। - जहाँ आत्मा के विकारमय होने का अनंतांश भी शेष नहीं रहा है ऐसे परमात्मा के शुद्ध स्फटिक और चन्द्र से उज्ज्वल शुक्लध्यान की श्रेणी से प्रवाहित अरिहंत देशना को हमारे अनंत-अनंत नमन हो। त्रिपदी तीर्थ अर्थात् प्रवचन सर्वज्ञ पुरुष से प्रसृत होता है इसीलिए कहा जाता है कि तीर्थंकर की आत्मा को पूर्वोक्त ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीय-अंतराय इन चार कर्मजो ज्ञानादि गुणों के घातक होने से घातीकर्म कहलाते हैं, उनका सम्पूर्ण क्षय हो जाने से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होता है, अर्थात् वे "केवलज्ञान और केवलदर्शन" प्राप्त करके सर्वज्ञ सर्वदर्शी होते हैं। यहाँ बाकी चार अघाती कर्मों का नाश नहीं होने के कारण वे अभी मुक्त नहीं हुए हैं अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं हो चुके हैं। लेकिन कैवल्य स्वरूप सर्वज्ञता-सर्वदर्शिता प्राप्त होने पर वे “तीर्थंकरनाम कर्म" नाम के उत्कृष्ट पुण्य का उदय होने से वे स्वभावतः आगमों के अर्थ का प्रकाशन करते हैं। उदाहरणार्थ-जैसे सूर्य स्वभावतः विश्व को प्रकाशित करता है। 'आगमों के अर्थ का प्रकाशन करने का मतलब समझाते हुए ललित विस्तरा की पंजिका में कहा है “शास्त्रार्थ प्रणयनात्"-शास्त्रार्थस्य = मातृका पदत्रयलक्षणस्य, प्रणयनांद् = उपदेशनात् . शास्त्र का अर्थ मातृकापदत्रय और प्रणयन का अर्थ उपदेश करते हुए यह स्पष्ट निर्देशित किया है कि वे अपने गणधर शिष्यों को सकल शास्त्रों के मूलभूत अर्थ तीन "मातृका" पदों से देते हैं जिसे त्रिपदी कहते हैं। आर्हती दीक्षा अंगीकार कर गणधर अरिहंत को प्रणिपात करके “भयवं! किं तत्तं?" इस प्रकार प्रश्न पूछते हैं और अरिहंत प्रथम “उपन्नेई वा" इस प्रकार उत्तर देते हैं। इसका अर्थ होता है उत्पत्ति तत्व है। तब गणधर मगवन्त एकान्त में जाकर चिन्तन करते हैं कि जीव प्रत्येक समय उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार उत्पन्न होते हुए जीव अन्य
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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