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________________ २३२ स्वरूप-दर्शन देशना में विशेषतः लोक-अलोक, नवतत्त्व, अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, तिर्यंचयोनिका, माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्धि-सिद्ध और परिनिर्वाण-परिनिवर्त आदि का कथन किया जाता है। नवतत्व जिनदेशना के सर्वोपरि विचारों की महत्वपूर्ण आधारभूमि है मयतत्व। अन्य सर्वदर्शन एवं धर्ममतों के सूक्ष्म विचार इन नवतत्वों के एक ही देश में समा जाते हैं। समस्त द्वादशांगी का सूक्ष्म ज्ञान इन नवतत्वों के स्वरूप ज्ञान में सहायभूत है। इनका स्वरूप-ज्ञान प्राप्त कर इनके अनन्त भाव भेदों को निःशंक जानने और मानने वाले.. अरिहंत तक बन सकते हैं। इन नवतत्वों में कुछ जानने योग्य (ज्ञेय), कुछ ग्रहण करने .. योग्य (उपादेय) और कुछ तत्व त्यागने योग्य हैं। प्रथम सर्व जानने चाहिए बाद में ही विभाजन संभव है। दशवैकालिक सूत्र के अनुसार जिसने जीव अजीव के भाव न जाने.. हों वह अबुध संयम में स्थिर नहीं रह सकता है। आमा की सर्व प्रच्छन्न सत्त्व सम्पन्न वीर्यशक्ति की निरावरणता इन नवतत्व दर्शन के विशेषज्ञान प्रकाश में झलक उठती' ___अनेकान्तदर्शन-स्याद्वाददर्शन-जैनदर्शन में अनन्त वस्तुओं को अनन्त अपेक्षाओं से जाना जाता है। यद्यपि ये वस्तुएँ सिर्फ मानी ही जाती हैं, जानी नहीं जाती। क्योंकि हर वस्तुओं की सर्व पर्यायें मात्र केवलज्ञानी अपने केवलज्ञान से ही जान सकते हैं। अतः छद्मस्थों को जानने के लिए अरिहंत परमात्मा ने मुख्य वस्तु स्वरूप से उनको दो श्रेणियों में विभाजित किया है-जीव और अजीव। जीव-अजीवादि को प्रकारान्तर से जानने के लिए इन्हें नव विभागों में विभाजित किया गया है-(१).जीव, (२) अजीव, (३) पुण्य, (४) पाप, (५) आश्रव, (६) संवर, (७) निर्जरा, (८) बंध और (९) मोक्ष। जीव चैतन्य लक्षण एक रूप है तथा देह और द्रव्यरूप से अनंतानंत है। इन्द्रियादि की संसर्ग गृद्धि से इस जीव को देह स्वरूप ही जाना जा सकता है और अजीवतत्व उसके रूपी, अरूपी पुद्गल, आकाशादिक विचित्र भाव तथा कालचक्र आदि से जाना जा सकता है। ___ अजीव-जो पदार्थ चैतन्य रहित होते हैं, वे जड़-अजीव कहलाते हैं। इनके पांच भेद हैं-(१) धर्म, (२) अधर्म, (३) आकाश, (४) पुद्गल और (५) काल। इस प्रकार अन्य तत्वों षड्द्रव्यों आदि का विस्तृत स्वरूप वर्णन इसमें होता है। सर्व प्रकार की सिद्धि, पवित्रता, महानशील, निर्मल गहरे, और गंभीर विचार और स्वच्छ विराग की सौगात जिन-देशना के अतिरिक्त कहाँ संभव हो सकती है ?. नवतत्व, षड्द्रव्य, गुणस्थान-विवरण, कर्म और आत्मा का सम्बन्ध, मुक्ति प्राप्ति के उपाय, आत्मा का विकासक्रम इत्यादि कई मुख्य सिद्धान्तों का स्पष्ट निरूपण इसमें होता है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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