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________________ केवलज्ञान-कल्याणक ......... २३१ मानता है। आत्मा को कर्म का कर्ता मानता है पर उसे भोक्ता नहीं मानता है। फल को ईश्वराधीन मानता है। कोई आत्मा को मानता है, मोक्ष को नहीं मानता। कोई मोक्ष को मानता है परन्तु मोक्ष के उपाय उसे नहीं मिलते हैं। अरिहंत-देशना समस्त दर्शनों का शुद्ध समाधान रूप अनेकांत दर्शन है। इसकी पूर्णता में समस्त दर्शन प्रतिबिम्बित है और इसकी अखंडता में सब दर्शन का अभेद अस्तित्व समाया हुआ है। इसकी पूर्णतः प्राप्ति तो दुर्लभ है पर इसमें पूर्णतः प्रवेश भी कठिन है। जिन देशना के एक-एक पवित्र सिद्धान्त पर यदि यावज्जीवन चिन्तन किया जाए तो भी वह पूर्ण नहीं हो सकता है । समस्त आत्मवीर्य का उपयोग कर कई महाज्ञानी इसकी गहराई को छूने में सफल रहे हैं। अन्य दर्शनों के साथ अतुलनीय है। जिन देशना अथवा अरिहंत परमात्मा का यह झलकता हुआ परम सौभाग्य जिसका पुण्य-प्रकर्ष ही जगत् के जीवों के उद्धार का एक मात्र अवतरण है। पूर्णतः पुण्यशाली . न होने से प्रत्यक्षतः हम उनकी इस पारमार्थिकी जिन देशना का श्रवण-मनन-चिन्तन या आत्म-स्पर्शन नहीं कर पाते हैं परन्तु किसी अंशात्मक पुण्य प्रताप से अन्य आत्मार्थी जनों द्वारा ग्रन्थित उस दिव्य-देशना को अरिहंत के कृपा बल से आज प्राप्त कर रहे हैं। केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त महोग्रतपध्यान द्वारा विशोधन कर कर्म समुदाय को जला देने वाले चन्द्र और शंख से भी उज्ज्वल ऐसे शुक्लध्यान को प्राप्त चक्रवर्ती राजाधिराज या राजपुत्र होने पर भी संसार को एकांत अनन्त शोक का कारण मानकर उसका त्याग करने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिकर्मों को भस्मीभूत कर स्वरूप में विचरण करने वाले, किंचितमात्र सांसारिक वैभव विलास का स्वप्नांश भी जिनमें नहीं है, कर्म एवं विकल्पों . से आकुल व्याकुल पामर प्राणियों को स्वयं के वीतराग भाव से परम शान्ति अर्पित करने वाले, महान् मनोजयी, मौन और अमौन दोनों जिनको सुलभ हैं तथा एक कल्पना की सम्पन्नता जहां एक कल्प में भी दुर्लभ हो, वहाँ अनंत कल्पनाओं को कल्प - के अनन्तवें भाग में ही समा देने वाले परमात्मा परम-विशुद्ध बोधि बीज वाली मेघधारा वाणी से देशना फरमाते हैं। अरिहंत परमात्मा अति विशाल परिषद् को, ऋषि ( अतिशय ज्ञानी साधु ) - परिषद् को, मुनि (मौनधारी साधु परिषद् को, यति साधु) परिषद् को और देव परिषद् को हृदय में विस्तृत होती हुई, कण्ठ में ठहरती हुई, मस्तिष्क में व्याप्त होती हुई, अलगअलग निज स्थानीय उच्चारण वाले अक्षरों से युक्त, अस्पष्ट उच्चारण से रहित, उत्तम स्पष्ट वर्ण संयोगों से युक्त, स्वरकला से संगीतमय और सभी भाषाओं में परिणत होने वाली सरस्वती के द्वारा एक योजन तक पहुंचने वाले स्वरों से अर्धमागधी भाषा में धर्म को पूर्ण रूप से समझाते हैं।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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