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________________ २३० स्वरूप-दर्शन से कोई भी एक सामायिक तो कम से कम ग्रहण की ही जाती है। अन्यथा परमात्मा अमूढलक्ष (एक भी अक्षर) नहीं कहते हैं। समवसरण में मनुष्यों में एक सामायिक की प्राप्ति होती है। तिर्यंचों में से दो या तीन सामायिक ग्रहण की जाती हैं। यदि मनुष्यों और तिर्यंचों में से कोई भी जीव किसी भी प्रकार की सामायिक ग्रहण न करे तो देवों द्वारा अवश्य ही सम्यक्त्व सामायिक ग्रहण की जाती है। यदि यह भी न हो तो उसे आश्चर्य कहा जाता है। यद्यपि ऐसा कभी होता नहीं है। अनेकों तीर्थंकरों के इतिहास में आज तक श्रमण भगवान महावीर के अतिरिक्त किसी भी तीर्थंकर की देशना में ऐसा नहीं हुआ है। ___सर्व जीवों के प्रति समान भाव वाली परमात्म-देशना से असंख्यात संशयी जीवों के संशय का एक साथ विनाश होता है। परमात्मा की अचिन्त्य गुण-विभूति के कारण जीवों को परमात्मा के सर्वज्ञत्व का प्रत्यय प्राप्त होता है। वृष्टि का जल जैसे विविध वर्ण वाले पात्रों से विविध वर्ण का दिखता है, वैसे सर्वज्ञ प्रभु की देशना सर्वभाषाओं में परिणमित होती है। ___इस प्रकार की देशना देते हुए अरिहन्त परमात्मा भव्यात्माओं के पुण्यमय प्रदेशों में विचरते हैं। उनका उद्धार एवं निस्तार करते हैं। कई भव्यात्मा इसके लिए उत्सुक भी होते हैं। जिनेश्वर के आगमन के समाचार देने वाले को चक्रवर्ती साढ़े बारह लाख-प्रमाण सुवर्णवृत्ति-दान में देते हैं, और उतने ही कोटि-प्रमाण सुवर्ण प्रीति-दान में देते हैं। वासुदेव समाचार लाने वाले को उतने प्रमाण वाला रजत देते हैं, मांडलिक राजा साढ़े बारह हजार प्रमाण वृत्ति दान और साढ़े बारह लाख-प्रमाण प्रीतिदान करते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य धनवान भी अपनी अपनी भक्ति और वैभवानुसार नियुक्त-अनियुक्त पुरुषों को दान देते हैं। इस प्रकार करने में देवानुवृत्ति, भक्ति, स्थिरीकरण, सत्वानुकंपा, सातावेदनीय का बंध और तीर्थ की प्रभावना रूप गुणों की अनुमोदना होती है। अरिहंत देशना समस्त दर्शन जिन-देशना की ही उपज हैं। अरिहंत-देशना अर्थात् सूक्ष्म विचार संकलनाओं से भरा हुआ विश्व दर्शन। आत्मा है, वह नित्य है, वह कर्म का कर्ता है, वह कर्म का भोक्ता है, मोक्ष है और मोक्ष के उपाय हैं। इन षट्स्थानकों के द्वारा अरिहंत परमात्मा आत्म स्वरूप को प्रकट करते हैं। इन्हीं षट्स्थानकों में से एक को ही एकांत रूप मानकर अन्य दर्शनों की मान्यताएं सिद्ध होती हैं। जैसे कोई दर्शन आत्मा का अस्तित्व तो मानता है पर उसे नित्य नहीं मानता। कोई नित्य मानता है पर आत्मा को कर्म का कर्ता नहीं, ईश्वर को
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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