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केवलज्ञान-कल्याणक २२९ प्रभु की देशना के पश्चात् पर्षदा की उतनी ही संख्या हो ऐसा आवश्यक नहीं है। इस प्रथम देशना से सभी जीव. तृप्त हो ही जाते हैं फिर भी जिन्हें कुछ विशेष प्रश्न, वाद आदि करने हों, तो ऐसी विशेष प्रवृत्ति के हेतु भगवान जिनेश्वर की अनुपस्थिति में गणधर देशना देते हैं। अतः इस देशना में विशेष इच्छुक ही रहते होंगे और इसी कारण अल्प संख्या से बारह पर्षदा और योजनगामिनी वाणी का समायोजन हो सकता
देशना की आवश्यकता एवं परिणाम - केवलज्ञानी और वीतरागी बन जाने के पश्चात् अरिहंत परमात्मा पूर्ण कृतकृत्य हो चुके होते हैं। वे चाहें तो एकान्त साधना से भी अपनी मुक्ति कर सकते हैं, फिर भी वे देशना देते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति के कई कारण हैं। प्रथम तो यह कि जब तक देशना देकर धर्मतीर्थ की स्थापना नहीं की जाती तब तक तीर्थंकर नामकर्म का भोग नहीं होता। दूसरा, जैसा कि प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है-समस्त जगजीवों की रक्षा व दया के लिए भगवान् प्रवचन देते हैं।'
तीर्थंकर वीतराग होने पर भी तीर्थंकर नामकर्म के उदय से उनको धर्मदेशना करने का स्वभाव होता है। जब तक इसका उदय रहता है तब तक वे धर्मदेशना देते
___ अरिहंत भगवान का एक भी वचन असंख्य जीवों के भिन्न-भिन्न प्रश्नों का हितकर एवं स्पष्ट बोध कराता है। इसका कारण उनका तथाप्रकार का अचिन्त्य पुण्य प्रकर्ष का प्रभाव ही है। अतः इसी प्रश्न पर कि "तत्तं कहं वेइज्जई ?" तीर्थंकर नामकर्म कैसे वेदा जाता है ? उत्तर दिया गया है कि “अगिलाए धम्मदेसणाईहिं" ग्लानिरहित धर्म देशना से ही यह कर्म वेदा जाता है।२ . यह देशना ऐसी महत्वपूर्ण होती है तो फिर यह अभव्यों में पूर्ण सफल परिणाम क्यों नहीं लाती ? प्रस्तुत प्रश्न के निवारण हेतु हरिभद्र सूरिजी कहते हैं-इसमें अभव्य आत्मा का ही दोष है। बीज कितना ही उच्चकोटि का हो परन्तु जमीन यदि फलदुरूप नहीं है तो बीज क्या करेगा ? क्योंकि सूर्य के सहज उदय होते ही स्वाभाविक क्लिष्ट कर्मवाले उलूकों को आँखों से दिखना बंद हो जाता है। यहाँ सूर्य की न्यूनता नहीं मानी जाएगी वैसे ही परमात्म देशना का अभव्यों में परिणमन नहीं होने में परमात्मा की न्यूनता नहीं है।
अरिहंत परमात्मा की देशना श्रवण करने वाले श्रोताओं में से कोई जीव सर्वविरत बनता है, कोई देशविरत बनता है, कोई सम्यक्त्व ग्रहण करता है, इस प्रकार तीन में १. आवश्यक नियुक्ति-गा. १८३ पत्र ११९ २. प्रवचनसारोद्धार-भा. १, द्वार १०, गा. ३१०, पत्र ८४ ३. अष्टक प्रकरण-तीर्थकृद्देशनाष्टक-गा. ७.