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२२८ स्वरूप-दर्शन अनबूझ समस्या नहीं है। श्रमण भगवान महावीर की यह अन्तिम देशना सहज अविराम १६ प्रहर तक चली भी हो। आयुष्य-मर्यादा में प्रस्तुत विशेष नामकर्म का विपाक देशना के निश्चित समय की मर्यादा से निबद्ध भी रहा हो। अवसर की अनुचितता से प्रथम देशना का क्षणमात्र देना भी आवश्यक हो सकता है।
दिगम्बर परम्परा में देशना समय का कुछ अलग विधान है। तिलोयपण्णत्ति में कहा है-भगवान जिनेन्द्र की स्वभावतः अस्खलित और दिव्यध्वनि तीनों संध्याकालों में नवमुहूतों तक चलती है। इनके अतिरिक्त गणधर देव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ शेष समय में भी निकलती है। गणधर देशना
प्रथम प्रहर में देशना पूर्ण होने पर परमात्मा उत्तर द्वार से निर्गमन कर द्वितीय वप्र के ईशान कोण में स्थित देवच्छंदक पर विश्राम हेतु पधारते हैं और उस समय अर्थात् द्वितीय प्रहर में “यह हमारा कल्प है" ऐसा सोचकर ज्येष्ठ गणधर अथवा अन्य गणधर जिनेश्वर के लिये मणि रचित पादपीठ अथवा राजा के द्वारा लाये गए सिंहासन पर बैठकर धर्मदेशना करते हैं।
गणधर महाराज की देशना में अनेक गुण, विशेषताएँ एवं अतिशय होते हैं। वे भव्यजीवों के असंख्य भवों को बता सकते हैं। इनके अतिरिक्त वे जीव जो कुछ भी पूछते हैं उन सभी का यथोक्त उत्तर दे सकते हैं। इसमें एक सर्वोपरि विशेषता यह है कि इस समय श्रोता गणधर भगवान छद्मस्थ हैं, ऐसा नहीं समझ सकते हैं। अर्थात् वे उन्हें ही जानते हैं। असुर, सुर, खेचर, किन्नर, नर और तिर्यंच ये सर्व अपने समग्र व्यापारों को त्यागकर श्रवण रूप अंजलि द्वारा उनकी देशना रूप अमृत का पान करते हैं।२ ___ यहाँ एक प्रश्न होता है कि १२ प्रकार की पर्षदा के सामने अरिहंत परमात्मा चार रूप से एक योजन विस्तारगामिनी देशना से धर्मोपदेश करते हैं और तदनन्तर तत्काल ही प्रभु के वहां से पधार जाने पर द्वितीय प्रहर में गणधर भगवान देशना देते हैं। तो उस समय वे चार रूप में देशना करते हैं या एक ही रूप में ? योजनगामिनी विस्तार वाली देशना देते हैं या सहज स्वर से ?
इसके उत्तर में सेनप्रश्न के अन्तर्गत कहा है-गणधर भगवन्त स्वाभाविक और एक रूप में ही देशना देते हैं। क्योंकि चार रूप और योजनगामिनी विस्तार वाली वाणी आदि तो जिनेश्वर के अतिशय हैं और बारह पर्षदा के बारे में यहां अवसर की उचितता के अनुसार समझ लेना योग्य माना है। १. ४-९०३-९०४। २. बृहत्कल्प सटीक गाथा १२१५ ; १२१७ ;
आवश्यक नियुक्ति गाथा ५५८-५९० ; महावीर चरियं प्रस्ताव ८, पत्र ३३०