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२३४ स्वरूप-दर्शन
कोई भी गति न हो तो इस तीन भुवन में उनका समावेश किस प्रकार हो सकता है? अतः प्रणिपात कर पुनः पूछते हैं-हे भगवन् तत्त्व क्या है ? तब अरिहंत भगवान पुनः कहते हैं-“विगमेइ वा" अर्थात् विगत (विनाश) तत्व है। तत्त्व पाकर श्री गणधर भगवंतों ने सोचा कि सर्व का विगम (नाश हो) जाय तो शून्यता हो जाती है। ऐसा सोचकर प्रभु को वंदन कर पुनः प्रश्न पूछते हैं "भयवं किं तत्तं?" भगवन्त कहते हैं "धुवेइ वा।" स्थिति तत्त्व है। तब वे जीव का और सृष्टि का समग्र स्वरूप जानते हैं।
इस प्रश्न त्रय को निषद्या कहते हैं। अरिहंत द्वारा दिये जाने वाले इन तीनों उत्तरों को निषद्य त्रिपदी, मातृकापद, या महापद कहते हैं। इस त्रिपदी को सुनकर गणधर द्वादशांगी की रचना करते हैं। दिगम्बर मान्यता इससे भिन्न है। उनमें कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि समवसरण की रचना के बाद तीर्थंकर जब उपदेश करते हैं तब . उनकी देह से दिव्यध्वनि प्रस्फुटित होती है और वह ध्वनि अक्षरात्मक नहीं होती है। फिर भी गणधर उसे समझकर उस आधार से द्वादशांगी की रचना करते हैं।
यापनीय यतियों के अग्रणी समान शाकटायन ने भी प्रवर्तमान श्रुत को निर्देशित कर भगवान महावीर को स्व-पर दर्शन सम्बन्धित सर्व शास्त्रानुगत ज्ञान के कारण रूप गिने हैं-इस पर से यह तो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों मान्यताओं में निर्विवाद सिद्ध होता है कि अरिहंत वाणी के आधार से ही गणधर द्वादशांगी रचते हैं। दार्शनिक परम्परा में त्रिपदी का गौरव एवं महत्व
जैन दर्शन के अनुसार जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त है वही सत् कहलाता है। सत् याने (Existent)। जिसकी सत्ता (Existence) हो वह द्रव्य है। सत् के स्वरूप के विषय में भिन्न-भिन्न दर्शनों में मतभेद है।
जैन दर्शन के अनुसार जिसमें पर्यायों (Modifications) की दृष्टि से उत्पाद (Manifestation) और विनाश (Disappearance) प्रतिसमय होते रहते हों और गुणों (Fundamental Realities) की दृष्टि से प्रतिसमय ध्रौव्य (Continuity) रहता हो वह सत् है।
दार्शनिक परिभाषा में द्रव्य वह है जिसमें गुण और पर्यायें हों। द्रव्य में गुण अपरिवर्तनीय (Non-transferable) और स्थायी रूप से रहते हैं अतः वे द्रव्य के ध्रौव्य के प्रतीक हैं। इस संज्ञातर, भावान्तर या रूपान्तर को पर्याय कहते हैं। अतः..