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केवलज्ञान-कल्याणक २३५ उत्पाद और विनाश के प्रतीक हैं। गुण द्रव्य का विधान है और पर्याय उसकी अवस्थाएं हैं। पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाओं में जो व्याप्त रहता है वह द्रव्य है। अवस्थाओं का उत्पाद और विनाश होते रहने पर भी जो ध्रुव रहता है वही द्रव्य है। जो ध्रुव रहता है, अवस्थाएं उसी में उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं। द्रव्य का लक्षण सत् है।'
- किसी द्रव्य का नाश नहीं होता है। जो नाश समझा जाता है वह उसका रूपान्तर और परिणाम मात्र है। विश्व में जितने द्रव्य हैं, उतने ही थे और उतने ही रहेंगे। सब द्रव्य अपनी-अपनी सत्ता की परिधि में उत्पत्ति और नाश पाते रहते हैं। जीव द्रव्य ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। जन्म और मृत्यु उसकी पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाओं के सूचक हैं। द्रव्य का पर्याय रूप में प्रतिक्षण परिवर्तन होने पर भी जो उसकी अनादि अनन्त स्वरूप स्थिति है, जिसके कारण उसका समूलोच्छेद नहीं हो पाता। यह ध्रौव्य है।
वेदान्त और उपनिषद्, शांकर दर्शन सम्पूर्ण सत् पदार्थ को (ब्रह्म) केवल ध्रुव (नित्य ही) मानता है। बौद्ध दर्शन सत् पदार्थ को निरन्वय क्षणिक (मात्र उत्पादविनाशशील) मानता है। सांख्य दर्शन चेतमत्तत्त्व रूप सत् को तो केवल ध्रुव (कूटस्थनित्य) और प्रकृति तत्व रूप सत् को परिणामिनित्य (नित्यानित्य) मानता है। न्याय, वैशेषिक दर्शन अनेक सत् पदार्थों में से परमाणु, काल, आत्मा आदि कुछ सत् तत्वों को कूटस्थनित्य और. घट, पट आदि कुछ सत् को मात्र उत्पादन-व्ययशील (अनित्य) मानता है। -
जैन दर्शन का सत् के स्वरूप से सम्बन्ध रखने वाला मन्तव्य उक्त सब मतों से • भिन्न है। जैन दर्शन मानता है कि जो सत् वस्तु है, वह पूर्ण रूप से सिर्फ कूटस्थनित्य
या सिर्फ निरन्वयविनाशी या उसका अमुक भाग कूटस्थनित्य और अमुक भाग परिणामिनित्य अथवा उसका कोई भाग तो मात्र नित्य और कोई भाग मात्र अनित्य नहीं हो सकता। चेतन, जड़, अमूर्त, मूर्त, सूक्ष्म या स्थूल चाहे कुछ भी हो सभी सत् कहलाने वाली वस्तुएँ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप हैं। मूलतः उत्पाद-व्ययशील और गतिशील परमाणुओं के विशिष्ट-समुदायरूप विभिन्न स्कन्धों का समुदाय यह दृश्य जगत है। इस विश्व की सुनियोजित व्यवस्था स्वतः स्वाभाविक, सुनियंत्रित, सुव्यवस्थित, सुनियोजित और सुसम्बद्ध है, उसे किसी विश्वनियन्ता या अन्तर्यामी की बुद्धि की कोई अपेक्षा नहीं है। विश्व व्यवस्था
विश्व की सुनियोजित व्यवस्था का स्वरूप ज्ञान अर्थात् विश्व-स्वरूप-लोक स्वरूप १. तत्त्वार्थसूत्र अ. ५ सूत्र २९