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२३८ स्वरूप-दर्शन
आलम्बन है। स्वरूप की दृष्टि से सभी द्रव्य स्व-प्रतिष्ठित हैं। किन्तु क्षेत्र या आयतन की दृष्टि से वे आकाश प्रतिष्ठित होते हैं। इसीलिए उसे सब द्रव्यों का भाजन कहते
भगवती सूत्र में कहा है-यदि आकाश नहीं होता तो ये जीव और अजीव कहाँ रहते? ये धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते? काल कहाँ बरसता? पुद्गल कैसे बनता? यह विश्व का आश्रय रूप है।२
काल छह द्रव्यों में एक द्रव्य भी है और जीव-अजीव की पर्याय भी है। ये दोनों कथन सापेक्ष हैं, विरोधी नहीं। निश्चय दृष्टि में काल जीव-अजीव की पर्याय है और व्यवहार-दृष्टि से वह द्रव्य है। वह परिणाम का हेतु है-इसी उपयोगिता के कारण वह द्रव्य माना जाता है। काल के समय (अविभाज्य-विभाग) अनन्त हैं।
काल को जीव-अजीव की पर्याय या स्वतंत्र द्रव्य मानना, ये दोनों मत आगम-ग्रन्थों में तथा उत्तरवर्ती-साहित्य में पाए जाते हैं। उत्तराध्ययन में काल का लक्षण वर्तना बताया है-'दत्तणालखणो कालो।' उमास्वाति ने काल का लक्षण-'वर्तन परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य५ दिया है।
श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार व्यावहारिक काल मनुष्य क्षेत्र प्रमाण है और औपचारिक द्रव्य है। नैश्चयिक-काल लोक-अलोक-प्रमाण है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार. 'काल' लोकव्यापी और अणुरूप है।६
जिसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हों तथा जो मिलने-बिछुड़ने के स्वभाव वाला हो उसे पुद्गल कहते हैं।
परमाणु स्वयं गतिशील द्रव्य है। वह एक क्षण में लोक के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जो असंख्य योजन की दूरी पर है, जा सकता है। गति-परिणाम उसका स्वाभाविक धर्म है। धर्मास्तिकाय उसका प्रेरक नहीं, सिर्फ सहायक है। दूसरे शब्दों में गति का . उपादान परमाणु स्वयं है। धर्मास्तिकाय तो उसका निमित्तमात्र है। १. उत्तराध्ययन अ. २८, गा. ९। २. भगवतीसूत्र, श. १३, उद्दे. ४, सू. २६। ३. स्थानांग, २।४।९५ ___समयाति वा, आवलियातिं वा, जीवाति वा, अजीवाति वा, पवुच्चति। ४. तत्वार्थसूत्र ५।४0
सोऽनन्तसमयः । ५. तत्वार्थसूत्र ५।२२ ६. द्रव्यसंग्रह २२