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केवलज्ञान-कल्याणक २३७
३. धर्म (Medium of motion of Souls, Matter and Energy) ४. अधर्म (Medium of rest of Souls, Matter and Energy) 4. 34725T2T (Space, Medium of location of Soul etc.) ६. काल (Time) विश्व व्यवस्था की इस वास्तविकता को समझने के लिये ये षद्रव्य अस्तित्व और उपयोगिता का समन्वय प्रस्तुत करते हैं।
प्रत्येक द्रव्य किसी विशेष हेतु के कारण रूप है। छहों द्रव्यों की क्रिया या हेतु की जो. समष्टि है वह विश्व है। जिसमें चैतन्य है, वह जीव है। जो मूर्त है, वह पुद्गल द्रव्य है। द्रव्य का होना अस्तित्त्ववाद है और द्रव्य से होना उपयोगितावाद है। धर्म गति है, गति का हेतु या उपकारक 'धर्म' नामक द्रव्य है। स्थिति है, स्थिति का हेतु या उपकारक, 'अधर्म' नामक द्रव्य है। आधार है, आधार का हेतु या उपकारक 'आकाश' नामक द्रव्य है। परिवर्तन है, परिवर्तन का हेतु या उपकारक 'काल' नामक तत्त्व है।
जीव का लक्षण चैतन्य है और पुद्गल का लक्षण जड़ है। इन छः द्रव्यों में जीव, जीव है और धर्मास्तिकाय आदि पांच अजीव हैं।
धर्मास्तिकाय का लक्षण गतित्व है। धर्मास्तिकाय के बारे में गौतम की जिज्ञासा का समाधान प्रस्तुत करते हुए परमात्मा महावीर ने कहा है-गति के सहारे ही हमारा गगनागमन होता है, शब्द की तरंगें फैलती हैं, पलकें झपकती हैं, चिंतन चलता है, भाषा बोली जाती है, देहक्रिया क्रियाशील रहती है इन सबका आलम्बन गति सहायक तत्त्व ही है। विश्व में जीव और पुद्गल दो द्रव्य गतिशील हैं। वैज्ञानिकों द्वारा कथित Ether गतितत्त्व का ही दूसरा नाम है।
अधर्मास्तिकाय का लक्षण स्थितितत्त्व है। स्थिति की सहायता से हम खड़े रह सकते हैं, बैठते हैं, सोते हैं, मन को एकाग्र करते हैं, मौन कर सकते हैं, निष्पंद हो सकते हैं, आंखें बंद कर सकते हैं। इन सबका आलंबन स्थिति सहायक तत्त्व है।२ ___ आकाश लोक और अलोक दोनों में व्याप्त है। जिसमें जीव आदि सभी द्रव्य होते हैं वह लोक है और जहां केवल आकाश ही आकाश होता है वह अलोक है। जैन दर्शन के अनुसार आकाश स्वतन्त्र द्रव्य है। दिक् उसी का काल्पनिक विभाग है, आकाश का गुण शब्द नहीं अवगाहन है, वह स्वयं अनालम्ब है, शेष सब द्रव्यों का १. भग. श. १३. उद्दे. ४, सू. २४। २. (क) भग. श. १३, उद्दे. ४, सू. २५/
(ख) उत्त. अ. २८, गा. ७/