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केवलज्ञान-कल्याणक
परमात्मा के पुरुषार्थ की बेला जब परिणाम में प्रकट हो जाती है तब सर्वत्र प्रकाश-प्रकाश-प्रकाश की भव्य ज्योति झलक उठती है। केवलज्ञान के अनन्त प्रकाश में सारा संसार प्रकाशित हो उठता है। इस परम विजयश्री का सम्मान करने हेतु प्रकृति भी मानो उतावली हो उठी हो वैसे सर्वत्र सारे लोक में उद्योत की आभा खिल उठती है। चौदह रज्जू लोक में आनंद और प्रसन्नतामयी एक पुण्य प्रभा प्रसर जाती है। केवल का अर्थ एक है, पूर्ण है। अतः जो पूर्ण अनन्त ज्ञान है, वह केवलज्ञान है।
शुक्लध्यान की अंतरिका में वर्तते हुए; ध्यान की श्रेणियों पर आरोहण करते करते अनावरण को उपलब्ध करना ही अरिहंत का केवलज्ञान है। पुण्य जाग उठते हैं, पुण्यात्माओं को मानो अनुग्रह स्वयं परमात्मा का साकार रूप लेकर आज धरती पर उतर पड़ा है। महान शक्ति का संचार जिनके प्रत्येक चेतना प्रवाह में बह रहा है, वे ही तो हैं वीतराग-तीर्थंकर-अरिहंत केवली। उनके प्रत्येक आत्म प्रदेश से जगत् के समस्त भव्यात्मा के निस्तार का वीर्य है। उनके सर्व प्रदेशों में शक्ति के द्वार खुल गये हैं।
सर्व पर्यायों को जानने की क्षमता उत्पन्न हो गई, उनकी अनावृत चेतना में दूरस्थ पदार्थ अपने आप प्रतिबिंबित होने लगते हैं। न कोई जिज्ञासा, न कुछ जानने का प्रयास। सब कुछ सहज और संब कुछ स्वाभाविक। तीर्थंकर नाम कर्म का क्षय देशना के अतिरिक्त नहीं हो सकता है। सराग भाव की करुणा जब निवृत्त होती है तब सहज भाव की करुणा प्रकट होती है और सहज भाव की करुणा का दूसरा नाम है केवलज्ञान। यह सहज करुणा सहज परार्थ साध कर पुण्यात्माओं के पुण्य का परिणाम . रूप और भव्यात्माओं के भव्यत्व के परिपाक रूप वरदान बनकर दिव्य देशना में परिणत होती है। उनकी दिव्य देशना का पुण्य स्पर्श बुझे हुए अनेकों भव्य जीवों में परम प्रेरणा की ज्योति जगा देता है। अगणित आत्माओं के गहरे मिथ्यात्व अंधकार को सम्यग्दर्शन के महाउद्योत में परिवर्तित कर देता है। इस देशना की दिव्य ज्योति की विराट प्रभा में परमार्हत का दिव्य चैतन्य झलकता है। रागी महारागी बनते हैं और महारागी परमविरागी बनते हैं। अरिहंत परमात्मा की अनुग्रह कला ऐसी अद्भुत है।
इस कल्याणक के वर्णन में मुख्य दो वस्तुओं का विचार किया जाएगा-(१) केवलज्ञान की उत्पत्ति-स्वरूप एवं परमात्मा का तीर्थंकर नाम कर्म का विपाकोदयकाल, (२) परमात्मा का सातिशय स्वरूप एवं समवसरण वर्णन तथा देशना स्वरूप। केवलज्ञान की उत्पत्ति एवं स्वरूप
कायोत्सर्ग ध्यान में अनुरक्त अरिहंत परमात्मा अप्रमत्तसंयत नामक गुणस्थान से