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________________ . . . . .. १८० स्वरूप-दर्शन अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में पहुंचते हैं। पूर्वगत श्रुत के अर्थ में से शब्द पर और पुनः शब्द पर से अर्थ में विचरण करते हुए परमात्मा "पृथक्व वितर्क सविचार" नामक शुक्लध्यान के प्रथम चरण का ध्यान करते हैं। इस ध्यान में वे एक द्रव्य में उत्पाद, व्यय और ध्रुव इन पर्यायों के विस्तार द्वारा भिन्न-भिन्न भेदों से तथा विविध प्रकार के नय के अनुसार विचार करते हुए जीव और अजीव को अलग कर गुण पर्याय का विचार करते हैं। जिस प्रकार सिंह पर्वत के एक शिखर से दूसरे शिखर पर आरोहण करता है वैसे ही प्रभु अपूर्वकरण से “अनिवृत्तिबादर" नामक गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। तदनन्तर एक चरण से दूसरे चरण पर चढ़ते हुए दशवें सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान पर पहुंचते हैं। जिस प्रकार पथिक एक ग्राम से दूसरे ग्राम पहुंचता है, वैसे स्वामी मोह का साय करते हुए क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान पर पहुंचते हैं, उस बारहवें गुणस्थान के प्रान्त भाग में "एकत्व वितर्क अविचार" नामक शुक्लध्यान के द्वितीय चरण को ध्याते हैं। एक द्रव्य के अवलम्बन से रहे हुए अनेक पर्यायों में से एक ही पर्याय का आगमानुसार विचार करना और मन आदि योगों में भी एक से दूसरा विचार जिसमें नहीं हो उसे “एकत्व वितर्क अविचार" कहा जाता है। यह ध्यान योग की चपलता से रहित एक पर्याय में चिरकाल तक टिकता है। अतः बिना पवन के मकान के दीपक की तरह स्थिर (निश्चल) रहता है। ध्यानांतरिका में प्रवेश करने से पूर्व इस ध्यान में परमात्मा अपने मन. को एक परमाणु पर इस तरह स्थिर करते हैं जिस तरह विषहर मंत्र से सारे शरीर में फैला हुआ विष सर्पदंश के स्थान में आ जाता है। ईंधन के समूह को हटाने से थोड़े इंधन में रही हुई आग जैसे अपने आप ही बुझ जाती है, वैसे ही उनका मन भी सर्वथा निवृत्त हो जाता है। ___ध्यानांतरिका की प्राप्ति सयोगी केवली नामक तेरहवें गुणस्थानक में केवलज्ञान के समय होती हैं। इस ध्यान में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय तथा मोहनीय ऐसे चार घाति कर्मों का नाश होता है। इसी से जगत में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो जिनेश्वर भगवन्त जानते न हों और देखते न हों। इसी कारण वे तीनों जगत् के पूज्य हैं। निष्कंप, दुर्जेय, महामोहनीय आदि कर्म-समूह को भेदन में समर्थ, हृदय में उल्लसित महाशुक्लध्यान के प्रसार वाले, अन्तर्मुहूर्त में प्राप्त किये हुए छद्मस्थ वीतरागभाव वाले, जिन्होंने घनघाति कर्मों के विनाश से आत्मा की स्वभावदशा सम्पादित की है, लोकालोक के पदार्थों को प्रकाशित करने हेतु दीपक समान, संसार का उच्छेद करने वाले, अनुपम प्रभा वाले ऐसे प्रभु को तीनों लोक के सकल भाव, अनुभाव और सद्भाव प्रकाशित करने वाला, अनंत
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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