SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवलज्ञान-कल्याणक १८१ अक्षत-अनुत्तर-नियाघात निरावरण-कृत्स्न-प्रतिपूर्ण साकार और अनाकार स्वरूप-अप्रतिहत-अक्षय-लिंगरहित-वरविशेषणयुक्त-अविनाशी-लोकालोक को प्रकाशित करने वाला, मूर्त-अमूर्त-पदार्थों को समझने में समर्थ, जीव को स्वाभाविक लब्धियुक्त कैवल्यवर ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न होता है। - केवलज्ञान हो जाने से वे भगवान्, अरिहंत, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अरहस्यभागी, नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देवलोक की सर्व पर्यायों को जानते व देखते हैं। बह पर्यव, आगति-गति-स्थिति-च्यवन-उपपात, भोगे हुए, किये हुए, सेवे हुए, प्रकट कर्म, रहस्य कर्म और मन-वचन-काया के योगादि रूप जीव के सर्व भाव जानते हैं, अजीव की भी सर्व पर्यायें जानते हैं। मोक्ष मार्ग के विशुद्धतर मार्ग को जानते व देखते हुए, यह मोक्षमार्ग मुझे व अन्य जीवों को हित-सुख-निस्तार एवं सर्व दुख से मुक्त करने वाला है और परम-सुख देने वाला होगा-ऐसा जानते हैं। स्थानांग ‘सूत्र. के अन्तर्गत केवलियों के दश अनुत्तर-उत्कृष्ट दर्शाये हैं-१. अनुत्तर ज्ञान, २, अनुत्तर दर्शन-क्षायिक सम्यक्त्व, ३. अनुत्तर चारित्र-क्षायिक चारित्र, ४. अनुत्तर तप-शुक्लध्यानरूप, ५. अनुत्तर वीर्य, ६. अनुत्तर क्षमा, ७. अनुत्तर निर्लोभता, ८. अनुत्तर सरलता, ९. अनुत्तर मार्दव और १०. अनुत्तर लाघव। ____टीकाकार अभयदेव सूरि ने अनुत्तर शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है-ये ज्ञान दर्शन आदि परमात्मा के आन्तरिक गुण अन्य सर्व छद्मस्थ जीवों के गुणों से अनुत्तर-श्रेष्ठ होते हैं। केवलज्ञान सदा किसी भी पात्र-पदार्थ या व्यक्ति रूप किसी सहायता से रहित, निरपेक्ष, पर्यायरहित और अखंड होता है। केवली भगवान् सर्व पदार्थ को सर्वांग से प्रतिबिम्बसार, टंकोत्कीर्णवत् और अक्रम से जानते हैं। सब कुछ जानते हुए भी वे कभी व्याकुल नहीं होते हैं। निश्चय से स्व को और व्यवहार से पर को जानते हैं अतः केवलज्ञान स्वपरप्रकाशकत्व का समन्वय है। अरिहंत और सामान्य केवली केवली और अरिहंत में समानता होते हुए भी अंतर है। यह अन्तर मात्र परमाणु जितना है, वह भी केवलज्ञान में नहीं परंतु पुण्य प्रकृति में ही है। घातीकर्मों का क्षय कर केवलज्ञान का उपार्जन करने वाले केवली हैं। अरिहंत की तरह उनमें केवलज्ञान और केवलदर्शन होता है फिर भी वे अरिहंत नहीं कहलाते। __ ऋषभदेव से वर्धमान महावीर तक चौबीसों अरिहंत केवली होने के साथ-साथ अरिहंत भी हैं। केवली और अरिहंत में वीतरागता एवं ज्ञान की समानता होते हुए भी अन्तर इतना ही है कि अरिहंत के साथ आठ प्रातिहार्य होते हैं। जन्म, दीक्षा या ज्ञान के बाद चौंतीस अतिशय होते हैं। प्रवचन सभा रूप समवसरणादि होते हैं। .
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy