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१८२ स्वरूप-दर्शन कैवल्य महिमा
अरिहंत प्रभु को केवलज्ञान होते ही इन्द्रों के आसन चलायमान होते हैं। इस समय सौधर्मेन्द्र सिंहासन कांपने का कारण जानने के लिए अवधिज्ञान का उपयोग करते हैं। दीपक के प्रकाश में जैसे चीजें दिखती हैं वैसे ही सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञान से जान लेते हैं कि भगवान को केवलज्ञान हुआ है। वे तुरन्त ही रत्नसिंहासन और रल की पादुकाएं छोड़कर खड़े होते हैं। गीतार्थ गुरु का शिष्य जैसे गुरु की बताई हुई अवग्रह (अनुकूल) भूमि पर कदम रखता है वैसे ही वे अरिहंत की दिशा की ओर सात आठ कदम रखते हैं, और अपने बाएं घुटने को कुछ झुकाकर, दाहिना घुटना, दोनों हाथ और मस्तक से पृथ्वी को छूकर प्रभु को नमस्कार करते हैं। फिर खड़े हो, पीछे फिर, उस सिंहासन को अलंकृत करते हैं। पश्चात तत्काल ही सभी देवताओं को बुलाकर बड़ी ऋद्धि के साथ भक्ति सहित प्रभु के पास आते हैं। अन्य सभी इन्द्र भी आसनकंप से स्वामी को केवलज्ञान हुआ है यह बात जानकर, अहंपूर्विका से, (मैं पहले जाऊँ) प्रभु के पास • महोत्सव हेतु आते हैं।
इन इन्द्रों और देवों के आगमन से और उनके द्वारा. प्रभु का कैवल्य महोत्सव मनाने से उस महिमापर्व पर समस्त लोक में भावोद्योत होता है।
त्रिषष्टि शालाका पुरुष चरित्र में आदिनाथ प्रभु के केवलज्ञान के अवसर का वर्णन करते हुए कहा है
दिशः प्रसेदुरभवन्, वायवः सुखदायिनः। .
नारकाणामपि तदा, क्षणं सुखमजायते ॥ . . उस समय-प्रभु के केवलज्ञान के समय दिशाएँ प्रसन्न हुईं, सुखकारी हवा चलने लगी और नरक के जीवों को भी एक क्षण के लिए सुख हुआ। इस प्रकार बाह्य वातावरण में अद्भुत शांति छा जाती है। ___ उपरोक्त दोनों सन्दर्भो में कुछ विभिन्नता पाई जाती है। स्थानांग सूत्र के अनुसार उद्योत का कारण केवलज्ञान ही न होकर उसकी महिमा है। इसी कारण कहा है-तिहिं ठाणेहिं लोगुज्जए सिया, तं जहा. "अरहताणं णाणुप्पाय महिमासु
। अभिप्राय यह है कि केवलज्ञान से समस्त लोक प्रसन्न होता है और इसके महिमापर्व से उद्योतमय होता है। .
समवसरण वैभवानुसार विस्तार वाले, वस्त्राभूषण से सजे हुए, देव-परिवार सहित वे इन्द्र महाराज आकर अरिहंत प्रभु का केवलज्ञान महोत्सव करने हेतु देव-समूह को आज्ञा करते हुए कहते हैं-समवसरण की भूमि तैयार करो।