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________________ केवलज्ञान-कल्याणक १८३ .................... तीर्थंकरों का केवलज्ञान नव द्वारों से वर्णित होता है। वे नव द्वार इस प्रकार हैं(१) समवसरण विधि द्वार, (२) सामायिक प्ररूपणा द्वार, (३) रूपवर्णन द्वार, (४) पृच्छा (संशय-निवारण) द्वार, (५) व्याकरण द्वार, (६) श्रोत परिणाम द्वार, (७) वृत्तिदान (प्रीतिदान), (८) देवमाल्यद्वार (बलि-विधान) और (९) माल्यानयन द्वार (तीर्थंकर की देशना के पश्चात् गणधर-देशना द्वार)।' समवसरण विधि द्वार · जहाँ पूर्व कभी भी समवसरण न हुआ तो उस स्थान पर तथा जहाँ महाधिक देव आया हो, उस स्थान पर वायु उदकवर्दल और पुष्पवर्दल विकुर्वणा द्वारा आभियोगिक देव तीन प्रकारों वाला समवसरण बनाते हैं। वस्तुतः समवसरण धर्मसभा का दूसरा नाम है। भरतेश वैभव में समवसरण के अन्य नाम दर्शाते हुए कहा है-"जिनसभा, जिनवास और जिनपुर ये एक ही अर्थवाचक शब्द हैं। जिनेन्द्र भगवान जिस स्थान में रहते हैं वह इस नाम से पहचाना जाता है।'' यद्यपि समवायांग सूत्र में इस शब्द की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं-समोसरणे ति समवसरणं त्रयाणां त्रिषष्ट्याधिकानां प्रवादिशतानां मतपिण्डन रूपंसमवसरण यानी तीन सौ तिरसठ (३६३) प्रवादियों के मत का समूह। किन्तु इस पर से इतना तो निश्चित है कि धर्मसभा के अतिरिक्त अन्य किसी सभा-स्थानों के लिए इस शब्द का प्रयोग नहीं किया है। . यहाँ समवसरण शब्द से मतलब एक ऐसा सभाभवन जिसमें बिराज कर अरिहंत परमात्मा मोक्षमार्ग का उपदेश करते हैं। इसका अन्तःप्रदेश बारह भागों में विभक्त किया जाता है, जिससे उसमें बैठे हुए भव्य जीव निकट से अरिहंत प्रभु के दर्शन कर सकें और उनका उपदेश सुन सकें। यह एक ऐसी धर्मसभा है जिसकी तुलना लोक में अन्य किसी सभा से नहीं की जा सकती। यह स्वयं उपमान है और यही स्वयं उपमेय है। . देव, दानव, मानव, पशु सब बराबरी में बैठकर धर्मश्रवण के अधिकारी बनते हैं, यही इसकी सर्वोपरि विशेषता है। समानता के आधार पर की गई व्यवस्था द्वारा यह स्वयं प्रत्येक प्राणी के मन में वीतराग भाव को जागृत करने में सहायक है, इसलिए इसकी समवसरण संज्ञा सार्थक है। __ समवसरण के स्थान पर “समशरण" शब्द का प्रयोग भी हो सकता है और तब उसकी व्याख्या इस प्रकार हो सकती है कि सभी प्रकार के जीव चारों ओर से आकर अरिहंत-परमात्मा की शरण ग्रहण करते हैं। अभिधान राजेन्द्र में कहा है-“सम्यग् एकी भावेन, अवसरण-एकत्र गमनं मेलापकः समवसरणम्।" यहाँ पर एकत्र होना अर्थ किया गया है। १. आवश्यक नियुक्ति-गा. ५४३
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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