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१८४ स्वरूप-दर्शन ___ इन्द्र की आज्ञा से कार्यों के अधिकारी अभियोगिक देव आकर समवसरण रचना का प्रारम्भ करते हैं। वायुकुमारदेव एक योजन प्रमाण भूमि में से कंकरादि दूर करते हैं। उस पर मेघकुमार देव शरद् ऋतु की वर्षा की तरह सर्व रज को उपशान्त करते हैं। व्यंतरदेव, चैत्य के मध्यभाग की तरह कोमल रत्नों की शिलाओं से उस जमीन का फर्श बनाते हैं। प्रातःकाल के पवन की तरह, ऋतु की अधिष्ठायिका देवियां जानु तक खिले हुए पुष्पों की वर्षा करती हैं। समवसरण के प्रकार ___ इस भूमि के तैयार हो जाने पर उस पर समवसरण तैयार होता है। समवसरण के . दो प्रकार हैं-वृत्त (गोलाकार) और चतुरन (चौरस)। इन दोनों की विभिन्नता एवं नाप बाद में दिया जाएगा। दोनों की रचना-विधि समान होती है। प्राकार-निर्माण में नियोजित निर्माता देव एवं द्रव्य __इन्द्र और अन्य देव समुदाय मणि-कांचन के कंगूरों से विभूषित तीन प्राकार बनाते . हैं। आभ्यंतर, मध्य और बाह्य ऐसे तीन प्रकार के प्राकार अनुक्रम से रत्न, कनक
और रजत के होते हैं और वे अनुक्रम से वैमानिक, ज्योतिषी और भवनपति देवों द्वारा विकुर्वित होते हैं। बृहत्-कल्प भाष्य के अनुसार ये कंगूरे के तीनों प्राकार वैमानिक देव ही करते हैं। तथा उन सर्व प्राकारों के द्वार रत्नमय होते है और उन द्वारों को अनेकों रत्ल के ध्वजा पताका एवं तोरणों से सजाये जाते हैं।
साधारण समवसरण में इस प्रकार होता है, परन्तु जब कोई ऋद्धिवान् देव आते हैं तो वे अकेले भी ये सब कुछ उतने ही समय में कर सकते हैं।२ .
आभ्यन्तर, मध्य और बाह्य इन तीन प्राकारों को प्रथम, द्वितीय और तृतीय प्राकार भी कहा जाता है। परंतु कभी-कभी, कहीं-कहीं, बाह्य को प्रथम, मध्य को द्वितीय और आभ्यन्तर को तृतीय प्राकार कहा जाता है। फिर भी इसकी व्यवस्था में कोई फर्क नहीं पड़ता है। अन्य चरित्रकर्ताओं में तो यह अन्तर मिलता है, परन्तु हेमचन्द्राचार्य ने तो भगवान् ऋषभदेव के चरित्र में आभ्यन्तर को प्रथम इस प्रकार क्रम दर्शाया है और अजितनाथ चरित्र में बाह्य को प्रथम बताया है। इन प्राकारों का विशेष-वर्णन करने के लिए यहाँ प्रथम अर्थात् बाह्य याने रजत् वाला प्राकार ऐसा क्रम समझना। प्राकार त्रय के स्वरूप एवं उद्देश्य-रंजत का प्रथम प्राकार___यह प्रथम प्राकार जमीन से सवाकोस ऊँचा और स्वर्ण, रल के मणिमय पीठ पर रचा जाता है। जमीन से दश हजार सोपान चढ़ने के पश्चात रजत का प्रथम प्राकार १. गाथा-११७८-११७९ २. आवश्यक नियुक्ति गाथा-५५४