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________________ केवलज्ञान-कल्याणक १८५ आता है। इसका प्रत्येक सोपान एक हाथ ऊँचा और एक हाथ चौड़ा होता है। अतः यह प्रथम प्राकार जमीन से ढाई हजार धनुष अर्थात् सवाकोस ऊँचा होता है। हाथ का यह प्रमाण जिनेश्वर के निज देह प्रमाण-अनुसार समझना। समवसरण के प्रत्येक प्राकार की दीवालें पांच सौ धनुष ऊंची और ३३ धनुष तथा ३२ अंगुली चौड़ी होती हैं। दीवालों की यह ऊंचाई भगवान ऋषभदेव के समवसरण की समझनी चाहिए। क्योंकि सर्व तीर्थंकरों के देहमान से दीवालों की ऊँचाई ५00 धनुष उचित नहीं बैठती है। अतः सर्व तीर्थंकरों के समवसरण की दीवालें उनके देहमानवत् ऊँची समझनी चाहिए। इस दीवाल पर सुवर्ण के स्फुरायमान कांतिवाले कंगूरे होते हैं। इस प्राकार के चार द्वार होते हैं। प्रत्येक द्वार पर पांचालिका, मणिमय छत्र और मकर के चिन्हवाले ध्वजाओं से सुन्दर ऐसे तीन तोरण होते हैं। प्रत्येक द्वार पर ध्वजाएँ, अष्ट मांगलिक, पुष्पमालाएँ, श्रेणियाँ, कलश और वैदिकाएं होती हैं तथा देवगण कृष्णागरु और तुरुष्कादि के दिव्य धूप को विस्तार करने वाली अनेकों धूपघटिकाएं वहाँ पर विकुर्वित करते हैं। इसमें मधुर जल वाली, मणिमय सोपानों वाली वापिकाएं होती हैं। (वापिकाओं की संख्या चतुष्कोण समवसरण के वर्णन में आएगी।) इसके-प्राकार के पूर्व द्वार पर तुंबरु नामक देव, दक्षिण द्वार पर खट्वांगी नामक देव, पश्चिम द्वार पर कापलि नामक देव और उत्तर द्वार पर जटामुकुटधारी देव द्वारपाल की तरह होते हैं, उनमें तुंबरु नामक देव भगवान का प्रतिहारी कहलाता है, क्योंकि पूर्व द्वार से ही प्रभु ऊपर आते हैं। इस प्राकार के अन्दर चारों ओर का समान भूमिका प्रतर ५० (पचास) . धनुष प्रमाण होता है। इस प्राकार में वाहन रहते हैं और देव, मनुष्य और तिर्यच आते-जाते समय एक दूसरे से मिलते हैं। - स्वर्णिम द्वितीय प्राकार प्रथम वप्र के प्रतर भाग को पार करने पर द्वितीय प्राकार के सोपानों का प्रारम्भ होता है। ये सोपान भी एक हाथ ऊंचे और चौड़े होते हैं। ये कुल पांच हजार होते हैं अर्थात् इतने सोपान चढ़ने के पश्चात् सुन्दर आकार वाला स्वर्णिम द्वितीय प्राकार आता है। इसके कंगूरे रत्न के होते हैं। द्वार रचना एवं अन्य सुशोभन प्रथम की भांति समझना। ___ इस प्राकार के पूर्व द्वार में जया नाम की दो देवियां द्वारपालिका की तरह होती हैं, ये श्वेतवर्ण वाली होती हैं, इनके करयुगल अभयमुद्रा से सुशोभित होते हैं। (अभयमुद्रा यानी “मा भैषीः' (डरना नहीं) ऐसा हाथ के विशिष्ट आकार से दर्शाना।) १. काललोक प्रकाश-सर्ग-३०, श्लो. ५३२-५३४ २. समवसरण रचनाकल्प-गाथा-५
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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