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________________ १८६ स्वरूप-दर्शन दक्षिण द्वार पर विजया नाम की रक्तवर्णवाली, हाथ में अंकुशधारिणी दो द्वारपालिका देवियां होती हैं। पश्चिम द्वार पर अजिता नाम की पीत (पीले) वर्ण वाली हाथ में पाशधारिणी दो देवियां होती हैं। उत्तर द्वार पर अपराजिता नाम की मकराढ्य धारिणी नील वर्ण वाली दो देवियां रहती हैं। यहां मकरवाली इस प्रकार लिखने से मगर रूप तिर्यंच नहीं समझना क्योंकि समवसरण रचना कल्प में इसे "सकच्छरा" और पाठांतर में “सत्थकरा" अर्थात् शस्त्रसहित शब्द से सूचित किया है। तात्पर्य यह है कि मकर नामक कोई प्राणी न होकर स्पष्टतः शस्त्रविशेष ही होता है। त्रिशष्टि शलाका पुरुष चरित्र के अन्तर्गत ऋषभदेव चरित्र में चतुर्थ शस्त्र का नाम मकर न होकर "मुद्गर पाणयः" हाथ में मुद्गर होना कहा है। ____ द्वितीय प्राकार का प्रतर-समतल भूमिभाग पांचसौ धनुष प्रमाण होता है। इस प्राकार में शेर, मृग, हरिण आदि तिर्यंच रहते हैं। पशुशाला की भाँति यहां तिर्यंचों का निवास नहीं होता है, परंतु परमात्मा के अतिशय प्रभाव से पुण्य-प्राप्त पशुओं को भी प्रभु की . देशना श्रवण करने की इच्छा होती है और इसलिए वे समवसरण में आते हैं। अतः उनके बैठने की यह स्वतंत्र व्यवस्था द्वितीय प्राकार में होती है। ये तिर्यंचप्राणी न केवल देशना श्रवण ही करते हैं अपितु श्रवणानुसार हृदयस्पर्श कर वे इसका महत् परिणाम भी पाते हैं। उदाहरण के लिए देखिये-भगवान् श्री धर्मनाथस्वामी के समवसरण में अंजलि सहित श्री गणधरदेव धर्म जिनेश्वर से प्रश्न करते हैं कि हे भगवन् ! ये देव, असुर, मनुष्य, तिर्यंचादि लाखों जीव यहाँ समवसरण के अंदर पर्षदा में बैठे हुए हैं। उनमें सर्व प्रथम कौन सा जीव कर्मक्षय कर सिद्धस्थान में जाएगा? भगवान ने कहा-हे देवानुप्रिय! तेरे पास से जो हल्के पीले रंग का चूहा आता है वह पूर्वेभव का स्मरण हो जाने से वैराग्य प्राप्तकर निर्भीक होकर यहां आता है। मेरे दर्शन से वह अतिशय प्रसन्न हो गया है। जिसकी आँखें हर्षाश्रु से भरी हुई हैं, कर्ण विकस्वर हो गये हैं, और जिसके सर्वांग में रोमांच हो रहे हैं, ऐसा यह चूहा सर्व पाप-रज से मुक्त होकर अनाबाध अक्षय सुख के स्थानरूप सिद्धस्थान को हम सब की अपेक्षा सर्वप्रथम प्राप्त करेगा! तिर्यंच प्राणियों की बैठक के अतिरिक्त इस प्राकार में एक अद्भुत चीज और होती है, और वह है प्रभु के विश्रामहेतु ईशानकोण में देवों द्वारा विकुर्वित मणिमय दिव्य देवच्छंद। क्योंकि देशना के पश्चात् जैसे कमल के चारों तरफ भौंरे घूमते हैं, वैसे ही सर्व इन्द्रों से परिवृत प्रभु उत्तर द्वार से होकर इस द्वितीय प्राकार में स्थिर देवच्छंदक पर विश्राम लेने पधारते हैं। ___ मुनिसुव्रतस्वामि चरित्र में सुरों-देवों के साथ अन्तर द्वार मार्ग से प्रभु के निर्गमन होने का उल्लेख है। यहाँ अन्तर द्वार शब्द के प्रयोग का कारण नहीं बताया है। संभव है यहाँ पर भी उत्तर द्वार शब्द का प्रयोग किया गया हो परंतु समयान्तर से यह लिपिदोष हुआ हो, अथवा उत्तर द्वार को ही अन्तर द्वार कहा है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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