________________
४. भोगमालिनी
५. तोयधारा
६. विचित्रा
७. पुष्पमाला
८. अनिन्दिता
२. ऊर्ध्वलोकवासिनी दिशाकुमारियां
१. मेघरा
२. मेघ
३. मेघा
४. मेघमालिनी
५. सुवत्सा ६. वत्समित्रा
७. वारिषेणा.
८. बलाहका
३. पूर्व रुचिकाद्रि
निवासिनी दिशा
कुमारियां
१. नंदोत्तरा
२. नंदा
३. आनंदा
४. नंदिवर्धना
५. विजया
६. वैजयंती
७. जयंती
८.. अपराजिता
जन्म-कल्याणक १४५
विमल करने वाला, मनोहर, सर्वऋतु के सुगंधित पुष्पों की गंध का विस्तार करने वाले वायु से तीर्थंकर भगवान् के | जन्म भवन से सर्वतः एक योजन की परिधि में भूमि साफ करती हैं। हजार स्तंभों से विभूषित प्रासाद ( सूतिकागृह) की विकुर्वणा करती हैं।
यह विकुर्वित प्रासाद ( सूतिका गृह) पूर्व दिशाभिमुख होता है बाद में संवर्तक वायु को संहरती हैं।
उनकी प्रवृत्ति
ईशान कोण में जाकर बादल की विकुर्वणा कर पानी-गंधोदक की वृष्टि कर उस प्रमार्जित भूमि को राजा के प्रांगण की तरह रज रहित, पंक रहित, सुगंधित और शीतल करती हैं। उन पुष्पों को विकुर्वित कर अधोमुखी वृन्त वाले पंचवर्णी पुष्पों की जानुप्रमाण वृष्टि करती हैं और उसे शक्र सभा के प्रांगणवत् बनाती हैं। बाद में कृष्णागुरु, कुंदरुक, तुरुष्कादि धूप की सुगंध से पृथ्वी को सुवासित कर देवों के क्रीड़ा स्थल की तरह क्षेत्र की जगह करती हैं।
प्रवृत्ति
मणि के दर्पण को हाथ में रखकर मांगलिक गीत गाती हुई माता के पास पूर्व दिशा में खड़ी रहती हैं।