SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४ स्वरूप-दर्शन हर्षित हृदय वाले होते हैं। असत्य वचनों का प्रयोग नहीं होता है। लोभ से अन्यायवृत्ति नहीं होती है। मन के संकल्प, संताप रहित होते हैं। वचनों का व्यापार पर-पीड़ा से रहित होता है। काया से अशुभ क्रियाकलाप का अभाव रहता है। कृतकृत्य भाव से मनःशुद्धि होती है, दूसरों के गुणग्रहण की अभिवृद्धि होती है, घर-घर में महोत्सव मनाये जाते हैं, मंगलगीत गाये जाते हैं। दिशाकुमारियों का आगमन प्रभु के जन्म के प्रभाव से ५६ दिशाकुमारियों के आसन चलायमान होते हैं। . अवधिज्ञान के उपयोग से प्रभु के जन्म का अवसर जानकर चार हजार सामनिक . ' देवियों सहित वे स्वस्थान से क्रमशः पृथ्वी पर आती हैं। अपने दिव्य यान-विमान से भगवान के जन्म-भवन को तीन बार प्रदक्षिणा करती हैं। फिर ईशान कोण में पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर विमान रखकर अरिहंत भगवान की माता के पास आती हैं, आकर अरिहंत व उनकी माता को तीन बार प्रदक्षिणा करके दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से आवर्तन करके अंजलि सहित स्तुति करती हैं हे जगज्जननी ! हे विश्वोत्तम लोक दीपिके ! हे महापुरुष को जन्म देने वाली महामाता ! जगत् के मंगल कर्ता, अज्ञान हर्ता, चक्षुदाता, जगत्वत्सल, हितकर्ता, मार्गदाता, रागद्वेष-विजेता, सर्व पदार्थ के ज्ञाता, सर्व तत्वों के प्रज्ञाता, अनासक्त ऐसे उत्तम पुरुष की तुम जननी हो। हम दिक्कुमारिकाएं अरिहंत का जन्मोत्सव करने यहां आई हैं। आप हमसे भयभीत न होवें। ये दिशाकुमारिकाएं आठ-आठ एवं चार-चार के समुदाय से.आठ विभागों में से आती हैं। ये इसी विभाग में तिर्यग्लोक में या अधोलोकादि स्थानों में रहती हैं। अतः वे क्रमशः अपने-अपने समुदाय सहित आती हैं और वहीं प्रसूति (शुचि) कर्म करती हैं। सभी समुदाय की अपनी निश्चित की हुई प्रवृत्तियां होती हैं। अतः वे आकर अपने कार्य में उपरोक्त प्रकार से स्तुति कर संयुक्त हो जाती हैं। उनके स्थान, आगमन एवं प्रवृत्ति निम्न कोष्ठक में हैं, जिसका सारा विवरण ज़म्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के पाँचवें अधिकार से सम्बन्धित है। आगम से अधिक या विभिन्न उल्लेखों के सन्दर्भ वहां दिये गये हैं। १. अधोलोकवासिनी उनकी प्रवृत्ति दिशाकुमारियां १. भोगंकरा ईशान कोण में जाकर वैक्रिय समुद्घात करती हैं। २. भोगवती संख्यात योजन का दण्ड बनाती हैं। रल यावत् सर्वतक वायु ३. सुभोगा की विकुर्वणा करती हैं, फिर उस मृदु, अनुधृत भूमितल.को
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy