SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन्म-कल्याणक १४३ ...................................................... इस उद्योत के अतिरिक्त एक दूसरा उद्योत भी होता है। प्रथम उद्योत अरिहंत परमात्मा के जन्म लेते ही क्षणमात्र में ही हो जाता है, परन्तु दूसरा उद्योत जिसके कारण को स्पष्ट करते हुए आचारांगादि में कहा है कि जिस रात्रि में तीर्थंकर भगवान का जन्म होता है उस रात्रि में भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और विमानवासी (वैमानिक) देव देवियों के नीचे ऊपर आने-जाने से एक महान दिव्य उद्योत-देवसंगम एवं देव कोलाहल होता है। जन्म के प्रभाव से तीनों लोक में आनन्द तीर्थंकर भगवान के जन्म के प्रभाव से तीनों लोक में आनन्द और सुख का प्रसार होता है। क्षणभर नारकी जीवों को भी अपूर्व ऐसे सुख की प्राप्ति होती है। जिनको कभी दुःख से विश्राम नहीं है ऐसे नारकी जीवों के सर्व दुःख भी प्रभु के माहात्म्य से दूर हो जाते हैं और क्षणभर उन्हें सुख की प्राप्ति होती है। षट्पुरुषचरित्र में नारकियों को भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त सुख होने का लिखा है। प्रभु के जन्म के प्रभाव से नारक जीव, मनुष्य, जलचर, स्थलचर, खेचरादि प्राणियों को भी स्वर्गवासी देवों की तरह अपूर्व सुख की प्राप्ति होती है। इस प्रकार प्रभु के जन्म के समय समग्र विश्व आनन्दित होता है। कहते हैं, “तदानन्दमयो जज्ञे, विश्वो विश्वत्रयीजनः"। प्रकृति पर प्रभाव अरिहंत परमात्मा के जन्म के समय अन्य प्राकृतिक वातावरण भी अद्वितीय सुन्दर, अपूर्व एवं असदृश होता है। शीतल मंद सुगन्धित पवन प्रदक्षिणावर्त होता है, पृथ्वी धन-धान्य से समृद्ध होती है, प्रत्येक व्यक्ति के मन में स्वाभाविक आनन्द प्रमोद होता है। दिशामण्डल प्रसन्न होता है, आकाशमण्डल मनोहर दिखता है, देव दुंदुभि बजती है। दिशावलय शुभ्र होता है। भूमि पर प्रसरने वाला पवन मानो भूतल में उत्पन्न होने वाला हो वैसा अनुकूल होकर दक्षिणावर्त बनकर मन्द-मन्द बहता है। चारों ओर शुभशकुन का सूचन होता है। वायुदेव भूमण्डल शुद्ध करते हैं, मेघ कुमार गंधोदक की . वृष्टि करते हैं, पृथ्वी के रजकण शांत हो जाते हैं। ऋतुदेवी पंचवर्णी पुष्पों की वृष्टि .. करती है तथा दिशाएँ निर्मल एवं प्रसन्न होती हैं। पुत्र जन्म के अवसर पर तीर्थंकरों की माता को अन्य माताओं की तरह प्रसव पीड़ा नहीं होती है क्योंकि तीर्थंकरों का यह स्वाभाविक प्रभाव है- “स एष तीर्थनाथाना प्रभावो हि स्वभावजः"१। षट्पुरुषचरित्र में इस वर्णन को बहुत सुन्दर रूप से प्रस्तुत करते हुए कहा है कि सम्पूर्ण जगत आनन्दमय होता है, सुर-असुरों के परस्पर वैर के अनुबन्ध का विनाश होता है, तिर्यंच और मानवों की आधि-व्याधियों का उपशमन होता है। लोक में रहने वाले क्षुद्र जीव भी उपद्रव रहित हो जाते हैं। लोगों के हृदय सद्बुद्धि वाले होते हैं। मन १. अजितनाथ चरित्र-पर्व २, सर्ग ३, श्लो. १२५
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy