SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्हत भाव चेतना को विखण्डन की प्रक्रिया से बचाता है। यह रूपान्तरण की वह सशक्त प्रविधि एवं प्रक्रिया है, जो अहम् को तोड़ती नहीं है अपितु अपने भीतर के “मैं” को फैलाती है। भीतर का “मैं" जब फैल जाता है तो कोई पराया नहीं होता। अपने-पन के जो सपने हम मिथ्याबोध या मिथ्यात्व के कारण ले रहे हैं, उसे भी यह तोड़ता है। वीतराग होने का अर्थ किसी का त्याग नहीं करना है, अपितु स्वयं को सर्वात्ममय बना लेना ही वीतरागता का पहला चरण है। राग को विश्व-वात्सल्य या प्राणी-वात्सल्य में विस्तृत करना ही वीतरागता है। यह शोध प्रबन्ध उसी दिशा की ओर आत्मा को अंगुली पकड़कर ले जाता है। इसी भाव को अपने स्वभाव के सांचे में ढालकर वे लिखती हैं “आर्हन्त्य अगम्य है परन्तु अरिहंत से अवश्य ही जाना जाता है। अनिर्वचनीय है परन्तु परावाणी के स्तोत्र में प्रकट भी होता है। अव्यक्त है पर अनुभूति में यह व्यक्त अवश्य होता है। आर्हन्त्य आर्हता है, योग्यता है, क्षमता और समर्थता है।" (पृ. सं. ५) । अपने आपका अवलोकन ही अर्हद की आराधना है। स्वयं को आदम कद आईना बनाकर उसके सामने खड़े कर देना ही इस साधना की प्रथम शर्त है। हम एक अंतहीन भीड़ लेकर जीते हैं, एक भी क्षण एकाकी नहीं होते। एकाकी होने पर भी हमारे भीतर समाज, परिवार व राष्ट्र के इर्दगिर्द उमगने वाले प्रश्न इस तरह से तैर आते हैं कि हम स्वबोध से जुड़ नहीं पाते। स्वबोध से जुड़े बिना किया गया विश्व बोध परिक्रमा का पथ है। परिक्रमा और यात्रा के बीच एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि परिक्रमा की कोई मंजिल नहीं होती, जबकि यात्रा का एक निश्चित लक्ष्य होता है। चेतना जिस परिक्रमा से गुजर रही है, उस परिक्रमा को किसी लक्ष्य से जोड़ देना ही वीतराग मार्ग का वैशिष्ट्य है। इसी पथ को खोजते उनके ये शब्द पथ भ्रान्त मानव को एक दिशा बोध देते हैं- "बिना आराध्य के निष्पत्तियाँ तो रहती हैं पर प्रक्रियाएँ खो जाती हैं। अरिहंत बिना भी मंजिल तो रह जाती है, रास्ते खो जाते हैं। शिखर के देखते रहने से काम नहीं बन पाता। शिखर तक पहुँचने के लिए पगदंडी भी मिल जाए तो काफी है। वह शिखर स्वप्नवत् है जिसकी सीढ़ियाँ दिखाई न दें। वे मंजिलें व्यर्थ हैं, जिनका मार्ग दिखाई न दे। वे सारी निष्पत्तियाँ बेबूझ हैं जिनकी प्रक्रिया न मिल पाती हो। अरिहंत वे प्रक्रियाएँ हैं जो निष्पत्ति पाने तक साथ हैं। मार्ग पर हाथ पकड़कर साथ देते हैं। सीढ़ियों पर आरूढ़ आराधक की प्रत्येक धड़कन में वे प्राणों का आयोजन करते हैं। सब कुछ होता है फिर भी वे कुछ नहीं करते हैं। क्योंकि अरिहंत [१५]
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy