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________________ प्रस्तावना बीज से महावृक्ष की यात्रा अर्हत आर्हन्त्य है। बूंद का सागर हो जाना अर्हत-वत्ता है। चेतना के चिद बिन्दु का परम विस्तार ही अर्हत दर्शन है। जहाँ जाकर शब्द ठहर जाते हैं भाव सागर लहलहाने लगता है, वहीं से चेतना अर्हत भाव की ओर अग्रसर होती है, जहाँ जाकर अहम् ठहर जाता है और विराटता के प्रति चेतना समर्पित हो जाती है, वहीं से वीतरागता का पदन्यास होता है। ___अरिहंत होने का अर्थ, अपने आपसे जुड़ना ही नहीं अपितु अपना वह विस्तार करना है, जहाँ व्यष्टि और समष्टि के भेद मिट जाते हैं। सागर और बूंद के विभेद सिमट जाते हैं, रह जाती है मात्र महाविस्तारी जलराशि चाहे उसे बूँद कहें चाहे सागर। पानी तो मात्र पानी है। इस बोध से जुड़ना ही अर्हत भाव की आराधना है। साध्वी रत्न डॉ. दिव्य प्रभा जी का शोध प्रबन्ध इस बोध से जुड़ने का इंगित प्रदान करता है, यह शोध ग्रन्थ एक दृष्टि देता है क्योंकि आलोक छितरा हुआ है, पसरा हुआ है। आलोक का लोक यात्री सूरज अवनी से अम्बर के बीच का भेद मिटा रहा है, किन्तु फिर भी उजाले का अहसास भीतर के स्व से नहीं जुड़ पा रहा है, क्योंकि हमारी आँखें स्वस्थ नहीं हैं। अर्हत दर्शन उजाला नहीं देता है, अपितु हमें वह आँख प्रदान करता है, जिससे हम अंधेरे में उजाले के शिल्पकार बन सकें। अगर सिद्धान्त की भाषा में कहें तो यह अवस्था सम्यक् द्रष्टा की है; सम्यक् द्रष्टा होने का अर्थ वीतराग भाव या अर्हद भाव का पहला स्पर्श पा लेना है। सम्यक् द्रष्टा बूंद है और अर्हद भाव सागर है। भला सागर बूँद की सत्ता को कैसे नकार सकता है, और बूंद सागर के लिए कैसे चुनौती बन सकती है? __इसी भाव भूमि के इर्दगिर्द जो विचार अपनी कमनीय कल्पना के साथ तथ्यों के आलेखन के द्वारा साध्वी रत्न प्रस्तुत कर रही हैं, वह एक अभिनन्दनीय प्रयास है। अर्हन्त्य ज्ञेय होकर भी अज्ञेय है। ज्ञेय और अज्ञेय के बीच के द्वंद्व को अनावृत्त करती यह अक्षर आराधना हमें उस सम्बोध से जोड़ती है, जो आज के तनाव और संत्रास ग्रस्त मनुष्य के लिए अप्राप्य है। मैं अनुभव करता हूँ कि आज सारे संत्रासों और तनावों के बीच व्यक्ति के बाह्य केन्द्रीयकरण में है। अगर व्यक्ति अपनी परिक्रमा को अन्तर-यात्रा की ओर मोड़ ले तो उसका इस संक्रमण से निष्क्रमण हो सकता है। [१४]
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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