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________________ एक पद है, किसी व्यक्ति का नाम नहीं है। इसी कारण यह संस्कृति की सीमा और बन्धन से परे है। अरिहंत स्वयं एक अंतिम मंजिल है, जिसके आगे कोई यात्रा नहीं।" (पृ. सं. ५३) वृति की प्रवृति को प्रकृति के साथ जोड़ना ही अध्यात्म की निष्पत्ति है। इस निष्पत्ति तक पहुँचने के लिए कहीं बाहर की ओर चलना नहीं अपितु भीतर में स्थिर हो जाना है; भीतर में स्थिर होने का अर्थ प्रतिक्रमण है, धर्म है, स्वभाव है। इतर दर्शनों की आध्यात्मिक प्रविधियाँ किसी को केन्द्र बनाकर उसकी ओर पहुँचने का इंगित करती हैं, जबकि वीतराग का पथ पुनः लौटने का आमंत्रण देता है, उसी तरह से जैसे किसी थके हारे राही को उसका घर विश्रान्ति के लिए पुकार देता है, इसी विचार को व्यवहार के धरातल पर जीना ही अर्हत भाव की अर्थवत्ता है। प्रत्येक विचार को वैज्ञानिक निकष देना आज के परिवेश में आवश्यक माना गया है। जिस तार्किक युग से आज मानवता गुजर रही है, वहाँ सत्य को तथ्य के रूप में प्रस्तुत करने की उपादेयता स्वीकार की जा रही है, इस परिवेश की पुकार के प्रति अनुसंधातृ सचेष्ट है। उनके वैज्ञानिक नजरिए को यह पंक्तियाँ स्पष्ट करती हैं- ... “वर्तमान युग की एक बात से तो हम बहुत परिचित हैं कि गोलाकार वस्तुओं की । सतह का क्षेत्रफल सबसे कम होता है और इसी कारण उनकी सतह की ऊर्जा निम्नतम होती है। इसी निम्नतम ऊर्जा या अधिकतम स्थिरता को प्राप्त करने के लिए वस्तुएँ गेंद जैसा आकार धारण करने की कोशिश करती हैं। यही कारण है कि सूरज, चाँद, तारे, धरती और दूसरे सभी खगोलीय पिण्डों की बनावट गोल होती है। ___ अध्यात्म मार्ग में नमस्कार मुद्रा, वंदना, प्रदक्षिणा आदि प्रक्रियाएँ वृत्त-परिवर्तन द्वारा वृत्ति परिवर्तन के माध्यम हैं। इसी कारण वंदना से पूर्व दोनों हाथों को दक्षिणावर्त घुमाकर फिर पंचांग नमाने के विधान के पीछे महत्त्वपूर्ण कारण वृत्ति परिवर्तन भी रहा था।" (पृ. सं. ४१) आर्हती साधना संकल्प-धर्मा है। समर्पण से परे हटकर पुरुषार्थ के पंथ पर चेतना के चरण न्यास करने वाली यह विशिष्ट साधना पद्धति भीतर से बाहर और बाहर से भीतर की ओर चंक्रमण करती है। जीवन के अनन्त विस्तारी आयामों में अपने महत्वपूर्ण अनुस्पर्श से यह प्रक्रिया एक अनूठा रस रहस्य बरसाती है, वही चित्त वृत्तियों का परिशोधन कर एक अनूठी रचनाशीलता की ओर भी इंगित करती है। अपने हाथों से अपने निर्माण का एक रचनात्मक अनुष्ठान करने वाली श्रमण-साधना ने ईश्वर के उस विधान को नकार दिया जिसने मनुष्य की गरिमा को छीनने का प्रयास किया है। अर्हत वाणी में मनुष्य का निर्माण ईश्वर नहीं करता अपितु मनुष्य [१६]
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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