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अर्पण
मेरे प्रिय आराध्य; परम अरिहंत !
तेरा तुझको अर्पण,
तुझे सदा नमन ! सहजात्मस्वरूप परम आर्हन्त्य से आलोकित निर्ग्रन्थ देव ।
इस ग्रंथ को स्वीकार करो,
अक्षरों के अनुबंध को आकार दो ! यह तो तेरे अनुग्रह की अनुभूति है, तेरी ही सचेतन अभिव्यक्ति है।
तेरी कलणा से ही तो लिख पायी, .
तुझमें मुझे और मुझमें तुझे देख पायी । तेरा ही है फिर भी तुझे देती हूँ, इसी बहाने तेरे नाम का अमृत पीती हूँ।
-दिव्या .
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