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केवलज्ञान-कल्याणक २५१ रात्रि-समाचारी में प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में निद्रा और चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय करे।
अपर रात्रि में उठकर आत्मालोचन व धर्म जागरिका करना-यह चर्या का पहला अंग है।र स्वाध्याय, ध्यान आदि के पश्चात् आवश्यक कर्म करना। यह आवश्यक क्रिया साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका चारों के लिये होती है। आवश्यक-अवश्य करणीय कर्म छह हैं.१. सामायिक
समभाव का अभ्यास, उसकी प्रतिज्ञा का पुनरावर्तन। २. चतुर्विंशतिस्तव- चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति। ३. वन्दना
गुरु को बारह आवर्त से वन्दना। ४: प्रतिक्रमण- . कृत दोषों की आलोचना। ५. कायोत्सर्ग- - देह में रहकर भी देहभावों से मुक्त रहना। ६. प्रत्याख्यान- त्याग करना।
इस आवश्यक कार्य से निवृत्त होकर सूर्योदय होते-होते मुनि प्रतिलेखन करे, उन्हें देखे। उसके पश्चात् हाथ जोड़कर गुरु से पूछे-मैं क्या करूँ? आप मुझे आज्ञा दें-मैं किसी की सेवा में लगू या स्वाध्याय में? यह पूछने पर आचार्य सेवा में लगाए तो अग्लान-भाव से सेवा करे और यदि स्वाध्याय में लगाए तो स्वाध्याय करे।४ . संघव्यवस्था में शिष्टाचार का बड़ा महत्त्व है। अभ्युत्थान, अभिवादन, प्रियनिमन्त्रण, अभिमुखगमन, आदान-प्रदान, पहुँचाने के लिए जाना, प्रांजलीकरण . आदि.आदि विनय शिष्टाचार है।
१. उत्त. अ. २६, गा. १५। २. दश. चूर्णि २, गा. १२। ३. उत्त. अ. २६, गा. ४८/ ४. उत्त. अ. २६, गा. ८-१०। ५. उत्त. अ. ३०, गा. ३२।