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केवलज्ञान-कल्याणक २०५
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८. अरति - प्रतिकूल पदार्थों का तिरस्कार करना। ९. भय
भयभीत होना। १०. जुगुप्सा - मलिन वस्तुओं से घृणा करना। ११. शोक - मन विकल होना और संवेदनशील मानस। १२. दर्शनमोह-मिथ्यात्व- जो चीज जैसी है उसे वैसी नहीं समझना। १३. राग
सुख सामग्री में आसक्ति होना। १४. द्वेष . - दुःख-स्मरण कर अथवा दुःख उपजाने वाली वस्तु या
व्यक्ति के ऊपर क्रोध होना। १५. अविरति अप्रत्याख्यान-किसी भी वस्तु के त्याग का नियम प्रतिज्ञा
या प्रत्याख्यान नहीं होना। १६. अज्ञान - स्वरूप ज्ञान का अभाव। १७. निद्रा - नींद आना। १८. कामसेवन - स्त्री-पुरुष के परस्पर की मैथुनेच्छा। ___ उपरोक्त अठारह दोषों से रहित अरिहन्त परमात्मा होते हैं। ये अठारह दोष इतने गहन हैं कि सारी दुनिया के सर्व दोष इनमें समा जाते हैं, अतः जिनके इन सर्व दोषों का सर्वथा अभाव हो चुका है ऐसे व्यक्ति असाधारण मानव परमात्मा स्वरूप माने जायँ तो आश्चर्य भी नहीं माना जायेगा। क्योंकि एक दो नहीं सर्व अठारह दोषों की रहितता अरिहंत परमात्मा की आत्मविशुद्धि के बिना उपलब्ध नहीं हो सकती है। ऐसी • आत्म विशुद्धि हेतु साधक को सतत प्रयत्नशील रहना पड़ता है। • सप्ततिशतस्थानक में प्रकारांतर से अठारह दोष दर्शाते हुए कहा है
१. हिंसा, २. मृषावाद, ३. अदत्तादान, ४. क्रीड़ा, ५. हास्य, ६. रति, ७. अरति, ८. भय, ९. शोक, १०. क्रोध, ११. मान, १२. माया १३. लोभ, १४. मद, १५. मत्सर, १६. अज्ञान, १७. निद्रा और १८. प्रेम। बारह गुण - चार मूलातिशयों में अरिहंत के सर्व अतिशय समा जाते हैं। इन्हें मूलातिशय कहने का मतलब है कि ३४ अतिशय, वाणी के गुण, अष्टमहाप्रातिहार्य सब कुछ इन चार अतिशयों का विशद वर्णन है जिसे हम अतिशयों में देखेंगे।
१. अपायापगमअतिशय २. ज्ञानातिशय ३. पूजातिशय ४. वचनातिशय ये चार मूलातिशय और अष्ट महाप्रतिहार्य ऐसे १२ गुण अरिहंत के माने जाते हैं।