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२०४ स्वरूप-दर्शन एक ही होता है। भगवन्त के मुक्त हो जाने पर उनके देह के साथ समवसरण भी अदृश्य हो जाता है, जैसे मेघपटल व्याप्त होकर अदृश्य हो जाता है। ___ इस परंपरा में समवसरण सम्बन्धी एक और भी विशेष विभिन्नता पाई जाती है। वह यह कि यह समवसरण जमीन से अधर आकाश में तीन लोक के आधारभूत राजमहल के समान होता है। भूलोक को अत्यन्त आश्चर्यकारक इस समसवरण का कोई आधार नहीं होता है। जमीन से अधर पांच हजार धनुष छोड़कर आकाश-प्रदेश में और धूलिसाल परकोट से एक हस्तप्रमाण छोड़कर होता है। अर्थात् पर्वत से धूलिसाल ५00 धनुष और धूलिसाल से हस्तप्रमाण इतना ऊँचा और अधर यह होता है फिर भी नीचे से जोर से आवाज देने पर ऊपर तक सुनाई दे सकती है। .. ___ सोपानों की प्रस्तुत मान्यता तो दैवीय रचना के अनुसार मानी जा सकती हैं, परंतु जमीन से पृथक सोपान तक चढ़ने की व्यवस्था के बारे में यहाँ मौन रखा गया है। पांचसौ धनुष अधर आकाशस्थित इस समवसरण के पहले सोपानों को मानव पशु या स्वयं परमात्मा वैसे छू सकते हैं और कैसे उपर चढ़ सकते हैं ? अतः संभव है प्रस्तुत मान्यता सिर्फ विहार-वर्णन के अनुसार हो और यह नाप भी इसी हेतु दिया गया हो
और परमात्मा जहाँ विराज जाते हों वहाँ समवसरण हस्तप्रमाण अंधर रह जाता हो। अथवा ५०० धनुष का यह नाप ऋषभदेव भगवान के समय के अनुसार हो, अतः परमात्मा की ऊँचाई के अनुसार समवसरण की भी ऊँचाई मानी गई हो. तो प्रत्येक तीर्थंकर की ऊँचाई जितनी ऊंचाई उस समय के समवसरण की हो सकती है। मनुष्य निज व्यवस्था से सहज पार कर सकता है। अष्टादशदोषरहितता
तीर्थंकर परमात्मा की आन्तरिक विशेषता का मूलाधार अष्टादशदोषरहितता है, वे अठारह दोष इस प्रकार हैं१. लाभान्तराय - आत्मा के सहज स्वरूप की उपलब्धि नहीं होना। . २. वीर्यान्तराय - आत्मा में अनन्त शक्ति, तेज, बल आदि होने पर भी
उसकी उपयोगरहितता होना। ३. भोगांतराय - आत्मा के सहज स्वरूप की अनुभूति नहीं होना। ४. दानांतराय आत्मा के सहज स्वरूप को अन्य में प्रकट नहीं करवा
सकना। ५. उपभोगांतराय - आत्मा का अनन्त ऐश्वर्य होते हुए भी उसका उपभोग
नहीं हो सकना। ६. हास्य
मजाक या मश्करी करना। ७. रति - अनुकूल पदार्थों पर आसक्ति करना।