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केवलज्ञान-कल्याणक २०३
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उदाहरणार्थ-श्रमण भगवान महावीर जिस नगरी में पधारने वाले हों और वहां यदि समवसरण की आवश्यकता हो तो देव तत्काल ही, प्रभु के आगमन के पूर्व ही समवसरण तैयार कर लेते हैं और परमात्मा उस नगरी में आकर सीधे उस समवसरण में ही प्रवेश करते हैं। . तात्पर्य यह है कि भगवान् जहां पधार रहे हों उस ग्राम, नगरादि में यदि पहले कभी समवसरण न हुआ हो वहां तथा कभी भक्तिवश महर्द्धिक देवों के आगमन आदि कारणों से जब समवसरण की आवश्यकता हो तब हर समय समवसरण की रचना की जाती है। इसी कारण चरित्रों से ऐसा ज्ञात होता है कि श्रमण भगवान् महावीर के कई ग्रामों में कितनी ही बार समवसरण लगे थे। इन में से कुछ समवसरणों की तालिका नीचे दी है
१. जृम्भीक ग्राम के बाहर-ऋजुबालुका नदी के तट पर २. मध्यमा नगरी के समीप-बहुशाल नामक उद्यान में, यह दूसरा समवसरण ___ अपापा नंगरी के समीप-महासेनवन उद्यान में होने का उल्लेख भी मिलता है। ३. बाह्मण कुंडग्राम में ४. क्षत्रिय कुंडग्राम में ५. कौशांबी नगरी में ६. कौशांबी नगरी में . ७. राजगृह नगरी-वैभरगिरि पर्वत के समीप ८. राजगृह नगरी
९. दशार्ण नगरी .. १०. कुंडग्राम
११. अपापानगरी .. दिगम्बर-मान्यता
- समवसरण की रचना का प्रस्तुत विधान श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार है, परंतु - दिगम्बर मान्यता इससे बिलकुल विपरीत है। उनके अनुसार समवसरण समुद्र में एक स्थान में ठहराये हुए नवरत्न निर्मित जहाज के समान होता है, एक बार निर्माण करने के पश्चात् यह सदा परमात्मा के साथ ही रहता है, जिस समय परमात्मा का विहार होता है उस समय वह आकाश में रहा हुआ समुद्र के जहाज के समान दर्शित होता है। जहाँ परमात्मा विश्राम करते हैं वहां वह भी ठहर जाता है। जैसे नाविक की इच्छानुसार जहाज की गति व स्थिति होती है वैसे ही परमात्मा के गमनागमन के अनुसार समवसरण की स्थिति होती है। यहां पर समवसरण का पुनः पुनः निर्माण एवं विनाश हो जाना नहीं माना गया है। इनके अनुसार तो समवसरण परमात्मा के मुक्तिगमन तक