________________
.
.
.
.
२०६ स्वरूप-दर्शन प्रातिहार्य
तीर्थंकर परमात्मा को जब केवलज्ञान हो जाता है तब से चारों निकाय के देव प्रभु की सेवा में निरन्तर आते रहते हैं। देशना के समय सुवर्ण-रजत एवं मणिरत्न से युक्त तीन गढ़ वाले समवसरण में अष्टमहाप्रातिहार्य होते हैं जो केवलज्ञान की उत्पत्ति के बाद सतत साथ रहते हैं। अरिहंत परमात्मा की पहचान के ये विलक्षण चिन्ह हैं। क्योंकि तीर्थंकर परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी को हो नहीं सकते हैं। संख्या भी आठ ही होती है। आज तक जितने अरिहंत हुए हैं उन सभी को ये ही आठ प्रातिहार्य थे। इन प्रातिहार्यों को धारण करने की अर्हता वाले जो होते हैं वे ही अरिहंत कहलाते हैं। अरिहंत शब्द की व्याख्या में इसका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है।
बौद्ध साहित्य में बुद्ध को भी १५ प्रातिहार्य होने का उल्लेख प्राप्त होता है। यह मात्र सामयिकता का ही प्रभाव होना चाहिए। क्योंकि जैन दर्शन तो इस बात को. स्वीकार करता है कि प्रातिहार्य महावीर के पहले भी सर्व तीर्थंकरों को थे ही, और उनकी संख्या आठ ही थी, तथा वे भी एक ही समान थे, अलग नहीं। बौद्ध साहित्य में : बुद्ध को १५ प्रातिहार्य होने का उल्लेख है। परन्तु वे इन अष्ट महाप्रातिहार्य से सर्वथा . भिन्न हैं। प्रातिहार्य सम्बन्धी जो भी स्वरूप यहाँ दर्शाया गया है, वस्तुतः वह तपस्वियों की ऋद्धि और लब्धि है। संभव हैं तप के प्रभाव से बद्धको ऐसी लब्धियाँ प्राप्त हई हों। इन लब्धियों को ही यदि प्रातिहार्य कहा जाय तथा ऐसे प्रातिहार्य से जो युक्त हो उन्हें अरिहंत कहा जाय तो फिर अन्य साध और अरिहंत में क्या अंतर हो सकता है, क्योंकि जैन साहित्य में गौतमस्वामी आदि को भी लब्धियाँ थीं। इसी कारण वे सूर्य की किरणों का सहारा लेकर अष्टापद पर्वत पर सहज आरूढ़ हो गये थे। पात्र में रही अल्प खीर को चरण के अंगुष्ठ के स्पर्श मात्र से अनल्प कर उन्होंने १५०० तापसों को क्षीर का भोजन कराया था। ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ लब्धि के प्रयोग से अशक्य शक्य हो जाते हैं।
बुद्ध का प्रथम प्रातिहार्य है-उन्होंने क्रान्ति संपन्न और आशीविष चंड-नागराज के तेज को स्वयं के तेज द्वारा खींच लिया था। यह कथन प्रभु महावीर की एक घटना से मिलता हुआ है। चंडकौशिक ने भगवान महावीर के श्रीचरणों में दंश दिया। परन्तु महावीर ने उसके तेज का न हरण किया, न अभिभूत हुए। उन्होंने अपने करुणामय भावों से वास्तविकता को प्रकट किया। काटने के बाद भय से सर्प दूर जाता है कि शायद शिकार मेरे पर गिर जाएगा। परन्तु प्रभु को स्थिर देख उसने ऊपर भगवान की
आँखों में देखा, जहाँ विश्ववात्सल्य उभर रहा था। प्रभु ने वात्सल्यमय नयनों के परमतेज और परा वाणी के ओज से उसे संबोधित किया। इस वात्सल्यमय संबोधन से
१. विनयपिटक, महावग्ग महास्कन्धक १४, पृष्ठ २५