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केवलज्ञान-कल्याणक २०७
चंडकौशिक का वीर्योल्लास प्रकट हो गया। प्रभु के अनिमेष नयनों में वह निर्निमेष देखता रहा। देखते ही देखते उन्हीं नयनों में उसने स्वयं का भी विशेष रूप देखा। सत् जाग ऊठा। असत् टल गया। मैत्री ने सत्व को जगाया। जागकर वह झुक गया। विभूति के श्रीचरणों में समर्पित हो गया। कोई प्रयोग नहीं था प्रभु का चंडकौशिक को सम्मोहित करने का। इसे महावीर का प्रातिहार्य नहीं परन्तु सहज करुणा-परम प्रभावना माना जाता है।
इसी प्रकार अन्य प्रातिहार्यों में भी बुद्ध की इच्छा होते ही फलादि का सहज मिलना, कपड़े धोने की शिला का निर्माण, शीत के प्रकोप में उष्णता का आगमन, पानी गिरते समय बुद्ध का नहीं भीगना आदि वस्तुएँ भी गिनी हैं जो उनकी इच्छा से होती हैं, किन्तु प्रातिहार्य अरिहंत की इच्छाओं की पूर्ति में नियोजित कोई औपचारिकता नहीं है। प्रत्येक अरिहंत का यह सहज स्वाभाविक स्वरूप है जो अरिहंत को ही होता है अन्य किसी को नहीं। सम-सामयिक परिणति को प्रातिहार्य कहने मात्र से प्रातिहार्य नहीं हो सकता। .
वस्तुतः प्रातिहार्य के शाब्दिक विन्यास में इसकी स्पष्टता है कि "प्रतिहारा इव प्रातिहाराः सुरपति नियुक्ता देवास्तेषां कर्माणि-कृत्यानि-प्रातिहार्यणि।" प्रातिहार्य की इस व्याख्या के अनुसार देवेन्द्रों द्वारा नियुक्त प्रातिहार सेवक का कार्य करने वाले देवता को अरिहंत के प्रतिहार कहते हैं और उनके द्वारा भक्ति हेतु विकुर्वित अशोकवृक्षादि को प्रातिहार्य कहते हैं। इसकी सरल व्याख्या इस प्रकार है-"प्रत्येकं हरति स्वगर्म पार्श्वमानयति" (प्रति+ह+अण्)
अष्ट महाप्रातिहार्य का वर्णन : चार मूलातिशय और अष्ट महाप्रातिहार्य-ये बारह अरिहंत परमात्मा के गुण माने जाते हैं। अतः सर्वातिशयों में अष्ट महाप्रातिहार्य का महत्व विशेषाधिक है। यद्यपि चौंतीस अतिशयों के अंतर्गत अष्ट महाप्रातिहार्य का भी समावेश हो जाता है, फिर भी बारह गुणों के कारण इनका विशेष महत्व माना जाता है। इसी कारण प्राचीन स्तोत्रों में • मंगलाचरण में इसी को विशेष स्थान देते हुए अरिहंत परमात्मा की स्तुति की गई है। ये
आठ अतिशय चौंतीस अतिशय के अंतर्गत होने पर भी प्रातिहार्य की तरह परमात्मा के साथ रहने से ये प्रातिहार्य कहे जाते हैं। जब समवसरण न हो तब भी ये अष्ट महाप्रातिहार्य परमात्मा के साथ ही रहते हैं।
ये अष्ट महाप्रातिहार्य इस प्रकार हैं :(१) अशोक वृक्ष (२) सुरपुष्पवृष्टि (३) दिव्यध्वनि