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२०८ स्वरूप-दर्शन (४) चामर (५) सिंहासन (६) भामंडल (७) दुंदुभि
(८) तीन छत्र अशोकवृक्ष
अष्ट महाप्रातिहार्य में अशोकवृक्ष सर्वप्रथम होता है।
समवायांग सूत्र के अनुसार अशोक वृक्ष की रचना यक्ष देवता करते हैं। पार्श्वनाथ चरित्र में अशोकवृक्ष को शक्र विकुर्वित करते हैं और वीतराग स्तव में कहा है कि
अशोकवृक्ष की रचना व्यंतर देवता करते हैं। ____ यह अशोकवृक्ष वेदिका से संयुक्त होता है तथा इसके मूल के पास देवच्छंद (देशना के अनन्तर बैठने का देव निर्मित स्थान) होता है और वहाँ चार दिशा में चार सिंहासन होते हैं। जगत में सर्वश्रेष्ठ सुन्दर वृक्ष इन्द्र के उद्यान में होता है। उस सुन्दर वृक्ष से भी. यह अशोक वृक्ष अनन्तगुना अधिक सुन्दर होता है।
अरिहंत परमात्मा जब समवसरण में पधारते हैं तब सर्वप्रथम अशोकवृक्ष को तीन प्रदक्षिणा करते हैं।
अशोकवृक्ष की विशिष्टता का कारण अरिहंत की समीपता ही है। ऐसे अशोकवृक्ष के नीचे अरिहंत परमात्मा का निर्मल स्वरूपं अत्यंत शोभायमान होता है। यह हमेशा अरिहंत परमात्मा के मस्तक पर रहता है। अरिहंत परमात्मा जब सिंहासन पर विराजमान होते हैं तब अशोकवृक्ष सिंहासन के ऊपर रहता है, तथा जब भगवंत विहार करते हैं तब भगवंत के साथ ही जन समुदाय पर भी छाया करता हुआ आकाश में चलता है। तात्पर्य यह है कि अशोकवृक्ष सदा अरिहंत के साथ ही रहता है।
वीतरागस्तव में इसका महत्व दर्शाते हुए कहा है-कषाय रूप दावानल से परितप्त और अत्यन्त कष्ट से पार की जाने वाली संसार रूप अटवी में अनादिकाल के परिभ्रमण से श्रान्त भव्य जीवों के लिए ये अरिहंत भगवंत ही महाविश्राम-वृक्ष हैं। __वह प्रमुदित होकर मानों ऐसा व्यक्त करता है कि “मैं तो अत्यंत भाग्यशाली हूँ कि इन विश्राम वृक्ष रूप भगवंत का भी मैं विश्रामवृक्ष हूँ क्योंकि ये अरिहंत भी अपने भक्तजनों के साथ स्वयं मेरी छाया में विश्रांति लेते हैं। इससे अधिक सौभाग्य जगत् में
और क्या हो सकता है ? सर्व जगत के मस्तक रूप रहे हुए भगवंत के भी मस्तक पर मैं हूँ।" ___अशोक वृक्ष का सुशोभन दर्शाते हुए प्रवचनसारोद्धार में कहा है-अशोकवृक्ष का स्कन्ध मनोरम आकार वाला होता है, शाखाएँ विशाल एवं विस्तीर्ण होती हैं एवं पल्लव