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________________ केवलज्ञान-कल्याणक २०९ पत्रादि से नम्रीभूत होती हैं तथा अत्यन्त नजदीक, नवीन, कोमल रक्तवर्णक पल्लव समूह वाले पवन की मंद लहरों से चंचल और अविरल हिलते हुए पत्र वाला होता है। ___ अशोकवृक्ष के पुष्प सर्व ऋतुओं के, सुविकसित, सर्वोत्तम और उनमें से सतत निकलते हुए परिमल से आगत भ्रमरों से परिवेष्टित होते हैं तथा उन पर होने वाले भ्रमरों का रण-रण (झंकार) गुंजार वहाँ आये हुए भव्यात्माओं को श्रुति मधुर-संगीत अर्पित करता है। ____ अन्य सुशोभन :-पत्रों से संछन्न, पुष्पों एवं पल्लवों से समाकुल तथा छत्र, ध्वजा घंट एवं पलाकाओं से युक्त ऐसा श्रेष्ठ अशोकवृक्ष निरंघ्र गाढ़ छाया वाला और नीचे से यदि कोई देखता है तो उसे आकाश किंचित्मात्र भी दिखाई नहीं देता, सर्वत्र वृक्ष के पल्लव ही दर्शित होते हैं, ऐसा घना होता है। इसके नीचे बैठने वालों को तनिकमात्र भी सूर्य की धूप नहीं लगती, ऐसी गाढ़ छाया वाला होता है। उस छाया में अरिहंत परमात्मा भी अपने भक्त जनों के साथ विश्रान्ति लेते हैं। अतः सर्व जगत् के मस्तक पर रहा हुआ अशोक वृक्ष अरिहंत के मस्तक पर रहकर प्रमोद पाता है। पुष्प वृष्टि ___ समवायांग सूत्र में इस प्रातिहार्य हेतु पुष्योपचार शब्द का प्रयोग किया गया है। पुष्पोपचार का अर्थ टीकाकार ने पुष्प प्रकट किया है। पुष्प प्रकट का अर्थ होता है, पुष्प की व्यवस्थित संरचना, देवगण केवल पुष्प की वृष्टि ही करते हैं ऐसा ही नहीं है, वे पुष्प की सुव्यवस्थित रचना भी करते हैं। इस समय स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि विशिष्ट .प्रकार की रचनाओं से यह पुष्पवृष्टि अत्यंत सुशोभित हो उठती हैं। ये पुष्प अधोमुखी वृन्तवाले, ऊपर से विकसित दलों वाले, अत्यन्त विकस्वर पंच वर्ण वाले, जल एवं स्थल से उत्पन्न, सुवासित, मनोहर, दिव्य एवं देवों द्वारा विकुर्वित होते हैं। पुष्प वर्णन १. अधोमुखी वृन्त वाले, २. विकसित दलों वाले-विकस्वर, ३. पंचवर्णी ४. वैक्रिय से विकुर्वित ५. सुवासित ६. मनोहर पुष्पोपचार या पुष्पवृष्टि १. जानुप्रमाण। . २. स्वस्तिक, श्रीवस्त आदि विशिष्ट प्रकार की प्रशस्त आकृतिमयी रचना में। ३. समवसरण में एक योजन तक और भगवन्त के आसपास सतत सर्वत्र।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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