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आराधक से आराध्य ७१ ................................... २., सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात्-भावी अरिहंत की भावना ____ भविष्य में होने वाले अरिहंत औपशमिकादि किसी भी सम्यक्त्व को प्राप्त कर उसके बल से सम्पूर्ण संसार के आदि, मध्य और अंत भाग में निर्गुणता या गुणरहितता का निर्णय करते हैं। अतः सम्पूर्ण संसार में चाहे फिर कोई भी भाग हो उसमें आत्मा को उन्नत करने वाला कोई तत्व नहीं है, ऐसा निर्णय कर वे तथाभव्यत्व के माध्यम से ऐसा विचार करते हैं-अहो! जगत् में सर्वज्ञप्रणीत धर्मरूपी उद्योत विद्यमान होने पर भी मिथ्यात्वादि मोहांधकार से व्याप्त दुःखित प्राणी व्यर्थ ही संसार में परिभ्रमण करते हैं। वरबोधि को प्राप्त ऐसा मैं भीषण भवभ्रमण से पीड़ित प्राणियों को किसी भी प्रकार से सर्वज्ञ भगवान् के धर्मरूपी उद्योत द्वारा दुःखमय संसार से अवतीर्ण करलूँ। अनुकम्पा और आस्तिक्यादि गुणों से युक्त, परोपकार करने के व्यसन वाले, नूतन एवं प्रशस्त गुणों के उदय से प्रतिक्षण जिनका विकास होता जाता है ऐसे बुद्धिमान् आत्मा प्राणियों पर करुणा से प्रेरित होकर उनको अवतीर्ण करने में अनुरक्त हो जाते हैं। .
भावी अरिहंत की भावना का स्वरूप दर्शाते हुए आचार्य मलयगिरिजी कहते हैं
"अहो आश्चर्य है कि श्री जिनेश्वरदेव का स्फुरायमान तेज प्रकाश वाला प्रवचन विद्यमान होने पर भी मोहान्धकार से जिनका सन्मार्ग लुप्त हो गया है ऐसे दुःख परीत चित्त वाले प्राणी इस संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं, इस तारक प्रवचन द्वारा इस भयंकर संसार से उनका निस्तार करूं।"२
इस प्रकार विचार कर अन्यों पर उपकार हो वैसा वे प्रयास करते हैं। अतः वे न केवल विचार कर बैठे ही रहते हैं परन्तु इस प्रकार जगत् के सर्व जीवों के उद्धार का वे प्रयास भी करते हैं।
सम्यक्त्व के प्रभाव से तीर्थंकरत्व का पुण्य उपार्जित करने वाले पुण्यात्मा के हृदय में संसार के दुःखमय, दुःखमूलक और दुःखानुबंधी स्वभाव का खयाल बहुत अधिक जागृत होता है। ऐसे दुःखमय संसार में फंसे हुए प्राणि मात्र पर उनके हृदय में उत्कृष्ट भाव-दया उत्पन्न होती है। वे निरन्तर "सबि जीव करूँ शासन रसी, इसी भावदया मन उलसी" का रटन करते हैं। वे निरन्तर भावना भाते हैं कि “मैं विश्व के समग्र जीवों को जन्म-मरण की बेड़ी से मुक्त करूँ। आधि, व्याधि और. उपाधि रूप त्रिविध ताप से संतप्त जीवों को दुःख रहित करूँ। समस्त प्राणियों को, विश्व के समस्त जीवों को जिनशासन के रसिक बनाऊँ। सभी को धर्मभावना से ओतप्रोत करूँ। महामायावी और
१. योगबिन्दु-गा. २८५-२८६ २. पंचसंग्रह-आचार्य मलयगिरिजी कृत टीका सहित-द्वार ४, गा. २० की टीका पत्र
१२/८/१