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७० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
परार्थव्यसनिनः : परोपकार करने के व्यसन वाले। उपसर्जनीकृतस्वार्थाः : स्वार्थ को सदा अप्रधान करने वाले। उचितक्रियावन्तः : सर्वत्र उचित क्रिया को आचरने वाले। अदीनभावाः : दीनभाव से रहित। सफलाराम्भिणः : सफल कार्य का ही आरंभ करने वाले। अद्दढानुशयाः : अपकारियों पर भी क्रोध नहीं करने वाले। कृतज्ञतापतयः : कृतज्ञता गुण के स्वामी। अनुपहतचित्ताः : दुष्टवृत्तियों रूप रागादि के अतिरेक रहित चित्त वाले। देवगुरुबहुमानिनः : देव और गुरु का बहुमान करने वाले। गम्भीराशयाः : गंभीर आशय वाले चित्त के भाव को धारण करने वाले।
सम्यक् प्रकार का भव्यत्व भाव प्रत्येक आत्मा में अनादिकाल से संसिद्ध होता है। तथाप्रकार के देश-काल निमित्तादि उत्तम सामग्रियों को प्राप्तकर बीजसिद्धि रूप भाव को प्राप्त होता है। यह भव्यत्व स्वभाव अनादिकाल से आत्मा में सहज रूप से रहा हुआ होता है। भव्य जीवों को अभव्य में बदलने का निश्चय से अभाव होता है। सम्यक् प्रकार की जो भव्यता होती है वह वस्तुतः मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता कही जाती है।
भव्यत्व यद्यपि सर्व आत्माओं का समान होता है फिर भी सभी भव्य आत्माओं की मुक्ति समान काल में अथवा समान सामग्रियों से ही संभव नहीं होती। अतः सर्व आत्माओं का “तथाभव्यत्व" अलग-अलग प्रकार का होता है। इन "तथाभव्यत्वों" में भी जिनेश्वर देव की आत्माओं का “सहज तथाभव्यत्व" सर्वोत्तम होता है। जैसे-जैसे उनका "सहज तथाभव्यत्व" यथोक्त सामग्रियों से परिपक्व होता है, वैसे-वैसे उनकी उत्तमता प्रगट होती जाती है। वरबोधि-सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद तो श्री अरिहंत परमात्मा की आत्मा सर्वथा परार्थ उद्यमी, उचितक्रियावान् और जगत् के जीवों के उद्धार करने के प्रशस्त आशय वाली होती है। अतः उनकी सर्व प्रवृत्ति सफल आरम्भ वाली और सत्वार्थ-परोपकार को साधने वाली होती है। __ भव्यत्व का अभिप्राय है सर्वकर्मदलों का सम्पूर्ण नाश कर परमनिर्वाण रूप मोक्ष को प्राप्त कराने वाला आत्मा का स्वभाव। यहाँ कभी प्रश्न हो सकता है कि यदि भव्यत्व आत्मा का स्वभाव ही है, अथवा इसी विशेष प्रकार की योग्यता से सिद्धि प्राप्त हो सकती है तो क्यों भव्यात्मा अनादिकाल से व्यर्थ भ्रमण करते हैं ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि परम निर्वाण रूप मोक्ष को प्राप्त करना भव्य जीवात्मा का स्वभाव होता है। वह अनादिकाल से जीव के साथ पारिणामिक भाव से सत्ता में अव्यक्त रहता है। वह योग्य काल की परिपक्वता होने पर ही अनादिकालीन कर्ममल का नाश कर योग्य शुद्धता को प्राप्त कर सहज रूप में रही हुई परम अवस्था के रूप में प्रकट होता है।