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आराधक से आराध्य
आत्म विकास की प्रथम भूमिका ___अरिहंत-पद प्राप्ति साधारण साधना नहीं है। एक भव की साधना से इसकी परिपूर्ण प्राप्ति नहीं हो सकती है। इसकी प्राप्ति के लिये तो अनेक भवों की साधना चाहिये। यह साधना अरिहंत-तीर्थंकर बनने की अभिलाषा से भी नहीं की जाती, किन्तु मुक्त होने की भावना से ही इस साधना का प्रारम्भ होता है। साधना के आदिकाल में संवेग (मोक्ष की रुचि-प्रेम) होता है और उस रुचि में से ही अरिहंत भगवान के प्रति भक्ति उत्पन्न होती है। उनकी परम वीतरागता, सर्वज्ञ-सर्वदर्शिता, यथाख्यात उत्तमोत्तम चारित्रं आदि उत्तम गुणों का चिन्तन करते हुए, उनके प्रति भक्ति, बहुमान, वन्दन, नमस्कार करते हुए और उन गुणों को अपने में उतारने में प्रयत्नशील होते हुए अरिहंत-तीर्थकर नाम कर्म की सर्वोत्तम पुण्य-प्रकृति के दलिक, आत्मा के साथ संबंधित होते हैं। यदि साधना चलती रहे और इस प्रकार के दलिकों का संग्रह होता रहे, तो कालान्तर में, भावों की परम-उत्कृष्टता से तीर्थकर नाम कर्मों का निकाचित बंध हो जाता है। १. सम्यक्त्व-प्राप्ति के पूर्व
सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व भी अरिहंत परमात्मा की अन्य जीवों की अपेक्षा उत्तमोत्तम अवस्था होती है। अव्यवहारराशि में भी अरिहंत परमात्मा अन्य जीवों की अपेक्षा अधिक गुणवान् होते हैं। फिर भी उनका सत्त्व आच्छन्न होता है। व्यवहारराशि में आते हैं और पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं तो चिंतामणि रल होते हैं, अपकाय में तीर्थजल में उत्पन्न होते हैं, तेजसकाय में यज्ञ या मंगलदीप की अग्निरूप होते हैं, वायुकाय में वसंतकालीन, शीत, मृदु, सुवासित पवन बनते हैं, वनस्पतिकाय में कल्पवृक्ष, आम्र या अन्य कोई विशेष फल या औषधि रूप होते हैं। उसी प्रकार द्वीन्द्रिय में दक्षिणावर्त शंख होते हैं, तिर्यंचपंचेन्द्रिय में उत्तम हस्ति या अश्व होते हैं। इस प्रकार सर्व गति और जाति में उत्तम स्थान प्राप्त करते हैं। सूरिमन्त्रकल्प-समुच्चय के अनुसार सम्यक्त्व के पूर्व अरिहंत की आत्मा विकलेन्द्रिय में नहीं जाती है।
- इस प्रकार अनादिकाल से अरिहंत परमात्मा विशेष उत्तमताओं से युक्त होते हैं। कुछ विशिष्टताओं में प्रसिद्ध उत्तमताएँ इस प्रकार हैं१. क्षेमंकरगणिकृत षट्पुरुष चरित्र, पत्र ३४ । २. पृष्ठ-९८॥