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________________ अरिहंत का तत्व-बोध ७ क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेषादि का वमन करना चाहिये, उनसे निवृत्त होना चाहिये-यही परमात्मा का दर्शन है, पथ है, मार्ग है। अरिहंत का समस्त दर्शन-शब्द दर्शन; संबंध दर्शन एवं स्वरूप दर्शन द्वारा अरिहंत दर्शन को पूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान करता है। अरिहंत से क्या अभिप्राय ? अरिहंत शब्द : एक समीक्षा ___“अरिहंत" शब्द हमारी स्वरूप चेतना के हस्ताक्षर हैं। साथ ही यह जैन पंरपरा में मान्य “नमो अरिहंताणं' मंत्र के परम आराध्य के लिए प्रयुक्त एवं प्रसिद्ध शब्द है। यह शब्द जैन-जेनेतर साहित्य एवं परंपरा में अनेक अर्थों में विश्रुत रहा है। किसी भी शब्द की विश्रुति मान्यताओं में रूपान्तरित होती है। मान्यताएँ ही कभी विविध परंपराओं का रूप ले लेती हैं। परंपरा, व्याकरण, नियुक्ति और व्याख्याओं के आधार पर किये जाने वाले अर्थ-विन्यास किसी भी एक अर्थ की सर्वोपरिता से अनछुए-से रहते हैं। विशेषार्थ के कारण विश्रुत शब्द किसी विशेष व्यक्ति का परिचय शब्द न रहकर भाववाचक संज्ञा बन जाता है। अरिहंत शब्द भाववाचक संज्ञा बनकर, भावों से जुड़कर पूज्य अर्थ का द्योतक बन गया। इस प्रकार इस शब्द की विश्रुति अनश्रुति बनकर शास्त्रों से लेकर साहित्य एवं संस्कृति में अनुस्यूत हो गई एवं परंपरा में प्रश्रुत हो गई। . - अरिहंत को आराध्य के रूप में मान लेने पर यह शब्द प्रस्तुत विश्रुति और प्रश्रुति से भी ऊपर उठ जाता है। शब्द मंत्र बनकर भावों के द्वारा प्राणों में तरंगित होता है और आगे कभी तरंगातीत निर्विकल्प अवस्था विशेष की परिणति बन जाता है। आगंम और आगमेतर साहित्य में तीर्थंकर शब्द के अनेक पारिभाषिक शब्द हैं, जैसे-अरिहंत, अरहंत, अरहा, अरिहा, जिन, केवली, भगवन, वीतराग, पुरुषोत्तम, अणंतनाणी, अणंतदंसी आदि। इनमें से जिन, केवली, वीतराग आदि शब्द सामान्य केवलियों के भी वाचक रहे हैं। तीर्थंकरों में भी वे गुण प्रतिपादित होने से वे भी जिन आदि कहलाते हैं परंतु प्रत्येक जिन आदि तीर्थकर नहीं कहलाते हैं, क्योंकि तीर्थंकर वह पद है जो तीर्थकर नाम कर्म रूप विशेष प्रकृति से जुड़ा हुआ है। जिनकी तीर्थ स्थापनादि रूप विशेष प्रवृत्तियाँ उनका अपना परिचय हैं। अरिहंत शब्द अनेक अर्थों में व्यापक रहा है। कई जगह वह तीर्थंकर शब्द का पर्यायवाची शब्द रहा, कई स्थलों पर वह सामान्य केवलियों का वाचक रहा तो कई १. आचारांग सूत्र-श्रुत. १, अ. ३, उ. ४, सू. १२८, १३० । .
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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