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६ अरिहंत-शब्द दर्शन
अरिहंत-दर्शन अरिहंत-दर्शन अर्थात् अपने आपका अवलोकन। “दृश्यते अनेन इति दर्शनम्'जिसके द्वारा देखा जाय वह दर्शन है। यह व्याख्या हमें इस प्रश्न की ओर ले जाती हैकिसके द्वारा देखना और क्या देखना ?
__ आगम हमें इस प्रश्न के उत्तर की ओर ले जाता है-“एगमप्पाणं संपेहाए"१ एक मात्र आत्मा को देखना है। मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? यह समाधान भी प्रश्नपरक हो गया। आत्मा को देखना है; पर वह कैसे ? उसकी कोई विधि और मार्ग तो निश्चित हो। इसका समाधान प्रस्तुत गाथा में हैजो जाणादि अरिहंत दव्वह-गुण-पज्जत्तेहिं । .
. सो जाणादि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्सलयं ॥ जो द्रव्य-गुण और पर्याय से अरिहंत को जानता है वह स्वयं के स्वरूप को जानता है।
हमारी अपनी आत्मा जिसे हम स्वयं नहीं जानते हैं। जो निरंतर अनुभवयुक्त होने पर भी अगम्य है। अपना निज रूप होने पर भी जिसे हम देख नहीं सकते हैं। उसको जानने, देखने या समझने के लिये हमें उसके पास जाना होगा जो इसे जानता, देखता और समझता है। जिससे देखा जाता है वह दर्शन है।
किसने ऐसे दर्शन को प्राप्त किया और किसने संसार के जिज्ञासु जीवों को दर्शन प्राप्त करवाया। इसका उत्तर अरिहंत की अभिव्यक्ति है। परमात्मा के दर्शन-प्राप्त स्वरूप का निर्देशन शास्त्र में इस प्रकार है।
“एगत्तिगते पिहितच्चे से अभिण्णाय दंसणे संते २ । एकत्व भावना से जिनका अन्तःकरण भावित हो चुका है, राग-द्वेष रूप अग्नि का जिन्होंने शमन कर दिया है अथवा “अर्चा"अर्थात् काया को जिन्होंने संगोपित कर लिया है, वे दर्शन को प्राप्त हो चुके हैं; वे स्वयं साक्षात् दर्शन हैं। क्योंकि वे “ओए समियदसणे"३ वे सम्यक्दर्शन में ओतप्रोत हैं।
हम उनके दर्शन में निज-दर्शन करें। या उनकी दृष्टि से हम अपने आपको देखें। अरिहंत का दर्शन अर्थात् अरिहंत का पथ, मार्ग। इसीलिये कहा है-“मेधावी पुरुष को
१. आचारांग-श्रुतस्कन्ध १, अ ४, उ. ३, सूत्र-१४१ २. आचारांग सूत्र-श्रुत. १, अ. ९, उ. १, सूत्र-२६४ ३. आचारांग सूत्र-श्रुत. १, अ. ६, उ. ५, सू. १९६ ।