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८ अरिहंत-शब्द दर्शन स्थलों पर वह पूज्य अर्थ का अभिभावक बना। विशेष तौर पर आगम-प्रमाण से वह तीर्थंकर शब्द का पर्यायवाची रहा है। इसी कारण यही शब्द मंत्र बनकर "नमो अथवा अरिहंताणं" द्वारा अरिहंत अर्थात् तीर्थंकर अर्थ में गूढ़ होता गया। । शब्दों का उद्भव धातु निष्पन्न माना गया है। धातु निष्पन्न शब्द को सत्यार्थ और अकाट्य प्रमाणरूप मान लेने पर “अरिहंत" शब्द को “अर्ह" धातु से निष्पन्न माना जाता है जिसका अर्थ योग्य होना और पूजित होना है। "अर्ह" धातु के ये दो मुख्यार्थ हैं। इन दोनों अर्थों के अधिकारी स्वामी ये “अरिहंत' हैं। इस धात्वर्थ से अरिहंत शब्द : के वाच्य स्वामी अष्टमहाप्रातिहार्य के योग्य और पंचकल्याणक पूजा के स्वामी"तीर्थकर"-अरिहंत होते हैं। इस अर्थ के अनुसार तीर्थंकर और अरिहंत के अर्थ में कोई फर्क नहीं पड़ता है। ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। एक का अर्थ है-तीर्थ की स्थापना करने वाले और दूसरे का अर्थ है-योग्य होना, पूजित होना। मात्र किसी भी प्रवृत्ति को प्रधान मानकर उन-उन आवश्यक शब्दों के यथोचित प्रयोग से शब्द वैविध्य माना जाता है। अतः “प्रत्येक तीर्थंकर अरिहंत हो सकते हैं, परन्तु प्रत्येक अरिहंत तीर्थकर नहीं हो सकते"-ऐसा मानना यह एक बहुत बड़ा भ्रम है।
अरिहंत शब्द का मुख्यार्थ तीर्थंकर मान लेने पर इस शब्द की सिद्ध व्याख्याएँ आगम, नियुक्ति, चूर्णि एवं वृत्ति के द्वारा परंपरा में प्रसिद्ध बन गईं। आगम के कुछ पाठ, इसकी प्रामाणिकता के साक्षी हैं। जिसको प्रत्यक्ष बनाने से इस शब्द के बारे में रहीं कुछ वैकल्पिक धारणाओं का अपने आप समाधान हो जाता है। आगम के अनुसार अरिहंत शब्द के अर्थ की प्रामाणिकता .
कथानुयोग में और खासकर भगवान महावीर और परमात्मा मल्लिनाथ के चरित्र में उल्लेख मिलता है कि उन्हें जन्म से अवधिज्ञान था और दीक्षित होने पर मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ।२ तीर्थंकरों का जन्म से अवधिज्ञानी रहना और दीक्षित होते ही मनःपर्यवज्ञानी होना नियम है। तीर्थंकर के इस विशेष गुणधर्म को अरिहंत शब्द से उल्लेखित करता हुआ एक पाठ स्थानांग सूत्र में इस प्रकार है
तओ अरहा पन्नत्ता तं जहा
ओहिनाण अरहा, मणपज्जवनाण अरहा, केवलनाण अरहारे १. जं रयणिं च णं समण भगवं महावीरे जाए, तं रयणिं च णं बहूहिं देवेहिं देवीहिं य
उवयंतेहिं उप्पयंतेहिं य देवुज्जोए एगालोए, लोए देवसन्निवाया उप्पिंजलमाणभूया कहकह भूया यावि होत्था।
-कप्पसुत्तं-पत्र-१४२ २. जं समयं च णं मल्ली अरहा सामाइयं चरित्तं पडिवने तं समयं च णं मल्लिस्स अरहओ
माणुसधम्माओं उत्तरिए मणपज्जवनाणे समुप्पन्ने! -ज्ञातासूत्र अ. ८, सू. १८ ३. स्थानांग सूत्र अ. ३, उ. ४, सू. २२० ।