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अरिहंत परम ध्येय
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कैसे कहलाते हैं ? यदि वीतराग प्रसन्न नहीं होते हैं तो उनके लिये पसीयंतु आदि शब्द की क्या आवश्यकता है ?? ___इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है-राग-द्वेष रहित परमात्मा प्रसन्न तो होते नहीं, किन्तु भक्तिपूर्वक स्तुति द्वारा कर्मों का क्षयोपशम होने से आराधक की आत्मिक प्रसन्नता खिलती है। परमात्मा अन्य आत्मा में तुल्य स्वभाव वाले होने से सज्जनों द्वारा पूज्य होते हैं। जिस प्रकार शीत प्रकोप से पीड़ित प्राणियों पर अग्नि राग या द्वेष नहीं करती है, लोगों को अपने पास बुलाती भी नहीं है फिर भी उसके आश्रितजनों को ईप्सित फल मिल ही जाता है उसी प्रकार अरिहंत परमात्मा के आश्रित रहने वालों को भी ईप्सित प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि अरिहंत परमात्मा प्रसन्न नहीं होते हैं, तदपि उनकी आराधना से उपलब्ध अभीष्ट फल प्राप्ति ही उनकी प्रसन्नता मानी जाती
परमात्मा की आराधना की विशेष आवश्यकताओं के हेतु बताते हुए कहा हैक्योंकि अरिहंत
१. हमारे कर्मक्षय के परम कारण हैं, २. प्राप्त बोधि की विशुद्धि में परम हेतु हैं, ३. भवांतर में बोधि-प्राप्ति में परम सहायक हैं, ४. सावद्ययोगों की विरति के उपदेशदाता होने से परम उपकारी हैं।३
काल, स्वभाव, भवितव्यतादि सर्व, इन प्रबल कारण के आगे तुच्छ हैं; क्योंकि अरिहंत परमार्थ रूप मोक्ष के परम कारण हैं। मंत्र और चेतना का सम्बन्ध . आर्हन्त्य हमारी अपनी स्थिति है, अवस्था है। जो छिपा है उसे प्रकट करना है, जो बन्द है उसे खोलना है, जो पर्दे में है उसे पर्दातीत करना है तो चलिये निजस्वरूप की अपनी प्रयोगशाला में।
विज्ञान अपने प्रयोगों से इनकी पूर्णता को पूर्णतः हासिल नहीं कर सकता परन्तु जप-ध्यान की हमारी अपनी प्रयोगशाला में उस पूर्णत्व की प्रतिष्ठा सम्भव हो सकती
- मंत्र-जप, भक्ति और ध्यान का सामंजस्य है। मंत्र का प्रादुर्भाव शब्दों से होता है परन्तु मंत्र-जप का उद्देश्य और परिणाम शब्द से अशब्द की तरफ जाने का है। यह इसलिए कि मंत्र शब्दमय तभी तक रहेगा तब तक वह चेतना में साकार न हो जाय। मंत्र के चेतनामय हो जाने पर वह मंत्र चैतन्यमय हो जाता है। १. चेइयवंदण महाभासं-गा. ६२६-६२७. पृ. ११२-११३ २. चेइयवंदण महाभासं-गा. ६२८, पृ. ११३ ३. अनुयोगद्वार-सूत्र-मलधारि हेमचंद्रसूरिकृत वृत्ति सूत्र ५८ की टीका ।